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क्या सरकार आपकी निजी संपत्ति ले सकती है? सुप्रीम कोर्ट ने दे दिया जबाब

निजी संपत्ति के अधिकार को लेकर अक्सर विवाद उठते रहते हैं, खासकर जब सरकार जनकल्याण के लिए किसी संपत्ति का अधिग्रहण करने की कोशिश करती है। इस मुद्दे पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम और ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि हर निजी संपत्ति को सामुदायिक संपत्ति नहीं माना जा सकता और सरकार इसे बिना किसी ठोस कारण के नहीं ले सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सार्वजनिक हित में कुछ खास संसाधनों का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन हर निजी संपत्ति को सामुदायिक संसाधन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। कोर्ट के इस फैसले ने पुराने विचारों और निर्णयों को पलटते हुए सरकार के भूमि अधिग्रहण और निजी संपत्ति के अधिकारों को लेकर एक नई दिशा दी है।

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट के बहुमत वाले फैसले में यह साफ किया गया है कि निजी संपत्ति को सामुदायिक संसाधन नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह व्यक्तियों के मूलभूत अधिकारों में आता है। न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि सिर्फ उन्हीं संसाधनों को सामुदायिक संसाधन माना जा सकता है जिनका उपयोग सार्वजनिक हित के लिए किया जा सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हर संसाधन को इस श्रेणी में डाला जाए।

यह फैसला न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर के पुराने फैसले के खिलाफ आया है, जिसमें यह कहा गया था कि राज्य निजी संपत्तियों को सार्वजनिक हित के लिए अधिग्रहित कर सकता है। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने इस विचार को खारिज कर दिया है और कहा कि यह विचार समाजवादी अर्थव्यवस्था के दौर से जुड़ा था, जब 1960 और 70 के दशक में देश की नीतियां अधिकतर समष्टिवादी होती थीं। अब भारत की आर्थिक नीति और दिशा बदल चुकी है और यह बाजार उन्मुख अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ चुकी है, जो विकासशील देशों के लिए नई चुनौतियों का सामना करती है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पिछले तीन दशकों में देश की आर्थिक नीति में बड़े बदलाव आए हैं और अब भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन चुका है। इसके चलते, अब निजी संपत्ति के अधिकार को लेकर नए दृष्टिकोण की जरूरत है। कोर्ट ने यह भी कहा कि अब निजी संपत्ति को सामुदायिक संसाधन मानना सही नहीं है, क्योंकि यह निजी अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है।

संविधान पीठ का फैसला: 9 जजों ने दिया फैसला

यह अहम फैसला सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संविधान पीठ ने सुनाया। इस पीठ में चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस ऋषिकेश रॉय, जस्टिस बी वी नागरत्ना, जस्टिस सुधांशु धूलिया, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह शामिल थे। सभी जजों ने मिलकर यह फैसला सुनाया, जो देश की संपत्ति अधिग्रहण नीति को लेकर महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश प्रदान करता है।

क्या यह फैसला पुराने फैसलों से अलग है?

यह फैसला उन पुराने विचारों से बिल्कुल अलग है, जिसमें माना गया था कि राज्य किसी भी संपत्ति को सार्वजनिक हित के लिए अधिग्रहित कर सकता है। पहले, खासकर समाजवादी सोच वाले दौर में, यह माना जाता था कि राज्य की जरूरतों के लिए निजी संपत्तियों को ले लिया जाना चाहिए। लेकिन अब इस विचार से हटकर सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया है कि ऐसा नहीं किया जा सकता, जब तक कि यह सार्वजनिक हित में न हो।

यह बदलाव भारत के आर्थिक दृष्टिकोण को दर्शाता है, जो अब बाजार पर आधारित है और जिसमें व्यक्तिगत अधिकारों का सम्मान किया जाता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह फैसला भारतीय लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था के विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

क्या इसका मतलब यह है कि सरकार अब निजी संपत्ति नहीं ले सकती?

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला यह नहीं कहता कि सरकार अब निजी संपत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकती, बल्कि यह कहता है कि निजी संपत्ति को तब तक नहीं लिया जा सकता जब तक यह स्पष्ट न हो कि इसका उपयोग सार्वजनिक हित में किया जाएगा। यह फैसला उन परिस्थितियों में सरकार द्वारा संपत्ति अधिग्रहण की स्थिति को स्पष्ट करता है, जहां सार्वजनिक जरूरतों के लिए ऐसी संपत्ति का उपयोग किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए कानूनी और संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करना जरूरी होगा।

इस फैसले का मतलब यह है कि जब सरकार को किसी निजी संपत्ति की जरूरत होती है, तो उसे यह साबित करना होगा कि वह संपत्ति समाज के भले के लिए जरूरी है। यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करेगा कि व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन न हो और केवल उन्हीं संपत्तियों का अधिग्रहण किया जाए, जिनका उपयोग वास्तव में सार्वजनिक कार्यों के लिए किया जाएगा।

यह फैसला उन नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण है, जो निजी संपत्ति के अधिकारों की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। इसके माध्यम से कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि संविधान में व्यक्तियों को दी गई संपत्ति के अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, जब तक कि यह एक वैध और कानूनी प्रक्रिया के तहत न हो।

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