बिरसा मुंडा की जयंती 2024: आज आदिवासी समाज के महान नायक बिरसा मुंडा की जयंती है। 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले में जन्मे बिरसा मुंडा का जीवन संघर्ष और समर्पण का प्रतीक बन चुका है। उन्होंने न सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन किया, बल्कि आदिवासी संस्कृति, धर्म और अधिकारों के लिए भी जंग लड़ी। आज के दिन को लेकर कई तरह की गतिविधियाँ चल रही हैं। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके योगदान को सम्मानित करने के लिए डाक टिकट और सिक्का जारी किया। साथ ही, आदिवासी समाज के कल्याण के लिए 6640 करोड़ रुपये की योजनाओं का शिलान्यास भी किया।
कौन थे बिरसा मुंडा?
बिरसा मुंडा का नाम आज हर आदिवासी दिल में बसा हुआ है। उनके जीवन और संघर्ष को लेकर कई किताबें, फिल्में और चर्चाएं होती रही हैं, लेकिन उनके योगदान को सही तरीके से समझना आसान नहीं। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले में हुआ था। उन्होंने उस वक्त की अंग्रेजी हुकूमत और आदिवासी समाज के खिलाफ होने वाले जुल्म के खिलाफ आवाज उठाई। उनके जीवन में एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने नया धर्म शुरू किया, जिसे “बिरसाइत” कहा जाता है।
बिरसा मुंडा का परिवार शुरू में ईसाई धर्म को अपनाने वाला था। उनके पिता सुगना मुंडा और उनके चाचा कानू पौलुस ने ईसाई धर्म स्वीकार किया था और उनका नाम भी बदलकर दाऊद मुंडा और मसीह दास रख दिया गया था। हालांकि, बिरसा मुंडा को मिशनरी धर्म से कोई खास जुड़ाव नहीं था और उन्होंने धीरे-धीरे इस धर्म को छोड़कर आदिवासी रीति-रिवाजों को अपनाना शुरू किया। जब उन्हें महसूस हुआ कि मिशनरी ईसाई धर्म आदिवासी संस्कृति और धर्म के लिए खतरनाक है, तो उन्होंने आदिवासी धर्म को पुनर्जीवित करने का फैसला किया।
नया धर्म ‘बिरसाइत’ कैसे बना?
1894 में बिरसा मुंडा ने आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई शुरू की। इस दौरान उन्होंने पाया कि न तो आदिवासी लोग अपने पुराने धर्म की तरफ लौटने के लिए तैयार थे, और न ही ईसाई धर्म के अनुयायी उनके आंदोलन में शामिल हो रहे थे। इसके बाद उन्होंने अपने आदिवासी समाज के लिए एक अलग धर्म की नींव रखी, जिसे बिरसाइत धर्म कहा गया। बिरसा मुंडा ने 1895 में इस धर्म का प्रचार शुरू किया और 12 शिष्यों को धर्म की शिक्षा देने का काम सौंपा। बिरसा मुंडा का यह धर्म न सिर्फ एक आधिकारिक धर्म था, बल्कि यह आदिवासी समाज के लिए एक जागरूकता अभियान भी था।
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बिरसाइत धर्म के अनुयायी उन दिनों के कई धार्मिक नियमों से अलग थे। इस धर्म के लोग मांसाहार, शराब, खैनी-बीड़ी से दूर रहते थे, और बाजार में किसी भी तरह का पकाया हुआ भोजन नहीं खाते थे। इसके अलावा, इस धर्म में पूजा के लिए फूल, अगरबत्ती, प्रसाद या दक्षिणा का प्रयोग नहीं होता था। ये लोग प्रकृति की पूजा करते थे, और उनके जीवन में सादगी और संयम प्रमुख था। बिरसाइत धर्म को मानने वाले लोग अन्य जातियों से शादी करने में भी कठिनाई का सामना करते थे, क्योंकि बिरसाइत धर्म में दूसरे धर्मों के लोग विवाह नहीं कर सकते थे।
PM मोदी की ओर से बिरसा मुंडा को श्रद्धांजलि
आज बिरसा मुंडा की जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके योगदान को सम्मानित करने के लिए कई पहल की। उन्होंने बिहार के दौरे पर बिरसा मुंडा की जयंती पर एक डाक टिकट और सिक्का जारी किया। साथ ही, उन्होंने आदिवासी समुदाय की भलाई के लिए 6640 करोड़ रुपये की परियोजनाओं का शिलान्यास और लोकार्पण किया। प्रधानमंत्री ने कहा कि बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज को अपनी पहचान दिलाई और उनके अधिकारों के लिए एक मजबूत आवाज उठाई।
बिरसा मुंडा को क्यों कहा जाता है ‘आदिवासियों का भगवान’?
बिरसा मुंडा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने आदिवासी समाज के लिए जो काम किया, वह उन्हें किसी भगवान से कम नहीं बनाता। उन्होंने आदिवासी समाज को अपनी जड़ों से जुड़ने के लिए प्रेरित किया, और यह बताया कि आत्मसम्मान के साथ रहना कितना जरूरी है। उनके द्वारा शुरू किए गए आंदोलन ने आदिवासी समाज को एकजुट किया और अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया। आज भी, बिरसा मुंडा की जयंती पर आदिवासी समाज उन्हें भगवान मानता है और उनके योगदान को अपने जीवन में लागू करने की कोशिश करता है।
बिरसा मुंडा का आंदोलन और उनका संघर्ष आज भी आदिवासी समाज के जीवन में एक प्रेरणा का काम करता है। उनके द्वारा शुरू किया गया ‘उलगुलान’ आंदोलन ने अंग्रेजों के खिलाफ विरोध की एक नई मिसाल पेश की। बिरसा मुंडा की शिक्षा, उनके विचार और उनके द्वारा दी गई दिशा आज भी आदिवासी समाज के दिलों में जिन्दा हैं। उनके जीवन और कार्यों को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि आदिवासी समाज में आज भी बिरसा मुंडा का असर है, और उनके विचारों को लागू करने की कोशिश की जा रही है।
दिल्ली में भी हुआ बिरसा मुंडा का सम्मान
बिरसा मुंडा के योगदान को मान्यता देने के लिए दिल्ली में भी एक कदम उठाया गया है। दिल्ली के सराय कालेखां ISBT चौक का नाम बदलकर अब ‘बिरसा मुंडा चौक’ कर दिया गया है। यह कदम उनके योगदान और संघर्ष को सम्मानित करने के लिए उठाया गया है, ताकि उनकी याद हमेशा लोगों के दिलों में बनी रहे।