उत्तर प्रदेश विधानमंडल (Uttar Pradesh Legislative Council) में भर्ती के नाम पर एक चौंकाने वाला घोटाला (UP Recruitment Scam) सामने आया है। 2020-21 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए 186 पदों पर भर्ती की प्रक्रिया चल रही थी, जिसमें करीब 2.5 लाख लोगों ने आवेदन किया था। लेकिन, इस भर्ती में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की परतें खुलने पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले को ‘चौंकाने वाला घोटाला’ करार दिया।
अदालत ने इस भर्ती प्रक्रिया की जांच सीबीआई (CBI) से कराने का आदेश दिया है, जबकि यूपी विधानमंडल ने सुप्रीम कोर्ट से राहत की अपील की है। इस मामले ने न केवल अधिकारियों की निष्ठा पर सवाल उठाए हैं, बल्कि भर्ती में पारदर्शिता के अभाव को भी उजागर किया है।
उत्तर प्रदेश विधान परिषद भर्ती प्रक्रिया में हुआ बड़ा घोटाला
इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, भर्ती में कई ऐसे उम्मीदवारों के नाम शामिल थे, जो उत्तर प्रदेश विधानमंडल से जुड़े अधिकारियों के रिश्तेदार थे। इनमें तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष के पीआरओ और उनके भाई, एक मंत्री का भतीजा, विधान परिषद सचिवालय प्रभारी के बेटे, संसदीय कार्य विभाग के प्रभारी के बच्चे, और अन्य महत्वपूर्ण अधिकारियों के रिश्तेदार शामिल थे।
यह पूरा मामला 2020-21 की भर्ती प्रक्रिया के बाद सामने आया, जब इन नियुक्तियों में बड़े पैमाने पर भाई-भतीजावाद की बू आ रही थी। इस भर्ती के तहत जिन फर्मों को काम सौंपा गया था, उनमें से एक फर्म TSR डाटा प्रोसेसिंग और दूसरी राभव प्राइवेट फर्म थीं, जिनके मालिकों पर पहले भी भर्ती घोटालों में शामिल होने के आरोप लगे थे।
भर्ती में रिश्वतखोरी और भाई-भतीजावाद की साजिश
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपनी जांच में पाया कि इन पदों पर भर्ती के लिए बाहरी एजेंसियों को लगाया गया था, जो पारदर्शिता के मामले में संदेहास्पद थीं। पहले, साल 2016 तक उत्तर प्रदेश विधानमंडल में भर्तियां यूपी लोक सेवा आयोग द्वारा कराई जाती थीं, लेकिन 2019 में विधानमंडल ने नियमों में संशोधन कर इसे खुद आयोजित करने का फैसला लिया। हाईकोर्ट ने इन संशोधनों पर कड़ी टिप्पणी करते हुए सवाल उठाया कि आखिर क्यों चयन समिति के नियमों को दरकिनार करते हुए बाहरी एजेंसियों को नियुक्त किया गया।
हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि यह निर्णय ‘चौंकाने वाला’ था और यह भर्ती प्रक्रिया पूरी तरह से संदिग्ध प्रतीत होती है। खासकर जब उन कंपनियों का इतिहास पहले भी संदिग्ध था और उन पर भर्ती में गड़बड़ी के आरोप थे।
राजनीतिक संबंधों का खुलासा
इस भर्ती में राजनीतिक रिश्तेदारों की नियुक्ति भी कई सवाल खड़े कर रही है। रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के करीबी जैनेंद्र सिंह यादव के भतीजे को विधानसभा के RO के पद पर नियुक्त किया गया, जबकि पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित के पीआरओ को विधान परिषद के प्रकाशन विभाग में एक नव निर्मित पद पर नियुक्त किया गया। हालांकि, जब इस बारे में हृदयनारायण दीक्षित से सवाल पूछा गया, तो उन्होंने इससे अपने को अलग कर लिया और कहा कि यह उनकी व्यक्तिगत नियुक्ति नहीं थी, बल्कि वे बाद में परिषद सचिवालय में नियुक्त हुए थे।
सीबीआई जांच और सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई
इस घोटाले की गंभीरता को देखते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मामले की सीबीआई जांच का आदेश दिया। लेकिन, इस आदेश को यूपी विधान परिषद ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल सीबीआई जांच पर रोक लगा दी है और मामले की अगली सुनवाई 6 जनवरी 2025 को निर्धारित की गई है।
नौकरी पाने वाले रिश्तेदारों की सूची में इनका नाम
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, भर्ती में शामिल कुछ ऐसे रिश्तेदार थे जिन्होंने इस घोटाले को और संदिग्ध बना दिया। इनमें से कुछ प्रमुख नामों में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष के पीआरओ के भाई, एक मंत्री का भतीजा, विधान परिषद सचिवालय के प्रभारी के बेटे, और यूपी सरकार के अन्य अधिकारियों के करीबी रिश्तेदार शामिल हैं। इसके अलावा, कुछ प्राइवेट कंपनियों के मालिकों के रिश्तेदारों का भी नाम सामने आया है, जिनका सीधा संबंध इस भर्ती से था।
क्या है आगे की कार्रवाई?
हाईकोर्ट की तरफ से आदेश दिए गए सीबीआई जांच के बावजूद, इस मामले में अभी कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जा सकी है। सुप्रीम कोर्ट में जांच की रोक के बाद अब यह मामला अगले साल जनवरी में फिर से सुने जाने की संभावना है। यह घोटाला उत्तर प्रदेश के भ्रष्टाचार और राजनीतिक रिश्तों के जाल को सामने लाता है, जो राज्य के रोजगार और सरकारी नौकरियों में पारदर्शिता पर गहरा सवाल खड़ा करता है।
इस मामले में अब तक कई सवाल उठ चुके हैं, लेकिन सीबीआई जांच के परिणाम आने के बाद ही असली तस्वीर सामने आ सकेगी कि उत्तर प्रदेश के विधानमंडल में हुई इन भर्तियों में कितना बड़ा खेल खेला गया था।