महाराष्ट्र की राजनीति में जिस शख्स का नाम सबसे बड़े सम्मान और ताकत के साथ लिया जाता है, वह हैं बाल ठाकरे। उनका राजनीतिक असर न केवल महाराष्ट्र, बल्कि पूरे देश में था। उन्होंने जिस शिवसेना को खड़ा किया, वह शुरू से लेकर अंत तक उनके नाम और विचारधारा की सियासत करती रही। लेकिन आज शिवसेना की धारा पूरी तरह बदल चुकी है। यह बदलाव सिर्फ एक नेता का नहीं, बल्कि उनके परिवार के भीतर और महाराष्ट्र की सियासत में एक बड़े उथल-पुथल का नतीजा है। राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे, और एकनाथ शिंदे जैसे नेताओं के बीच की जंग ने इस सियासी तस्वीर को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत अब किसके पास है?
राज ठाकरे की बगावत ने सब बिखेर दिया
सबसे पहले बात करते हैं राज ठाकरे की बगावत की, जो 2005 में शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) बनाने के साथ शुरू हुई। उस समय बाल ठाकरे का नाम पूरे महाराष्ट्र में एक शेर के रूप में लिया जाता था, और उनकी नेतृत्व क्षमता को कोई चुनौती नहीं दे सकता था। लेकिन जब राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ने का फैसला किया, तो यह उन सभी के लिए शॉक था जो बाल ठाकरे की राजनीति और उनकी सोच से जुड़े थे।
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बाल ठाकरे, जिनकी उम्र उस समय करीब 80 वर्ष थी, इस फैसले से टूट गए थे। राज ठाकरे के साथ उनके रिश्ते में कभी भी ऐसा तनाव नहीं आया था, और यही वजह थी कि इस बगावत ने उन्हें गहरे दुखी किया। बाल ठाकरे ने सामना में एक इंटरव्यू के दौरान कहा था, “मैं बहुत हैरान और दुखी था। मैंने राज ठाकरे से यह उम्मीद नहीं की थी।” राज जो भी चाहता था, उसमें वह और उद्धव ठाकरे एकमत थे, लेकिन अचानक राज का इस तरह से पार्टी छोड़ना बाल ठाकरे के लिए एक बड़ा सदमा था।
जब राज ठाकरे ने MNS (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) की स्थापना की, तो कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि वे अपनी चाचा बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाएंगे। 2009 में, राज की पार्टी ने 13 सीटें जीतीं, लेकिन इसके बाद उनकी पार्टी का ग्राफ तेजी से गिरता चला गया। MNS, जो शुरुआत में शिवसेना के विकल्प के रूप में उभरी थी, धीरे-धीरे सियासत से बाहर होती चली गई।
राज ठाकरे की राजनीति में मराठी अस्मिता और उत्तर भारतीयों के खिलाफ बयानबाजी अहम मुद्दे बन चुके थे, लेकिन समय के साथ यह राजनीति भी समाप्त होती गई। चुनावों में उनकी पार्टी का कोई खास असर नहीं दिखाई दिया और अंततः राज ठाकरे ने खुद को मुख्यधारा की राजनीति से धीरे-धीरे अलग कर लिया।
उद्धव ठाकरे खुद को मानते थे अपने पिता का उत्तराधिकारी
जब बाल ठाकरे का निधन हुआ, तो उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने खुद को उनके राजनीतिक वारिस के रूप में पेश किया। लेकिन उद्धव की राजनीति में काफी उलझन थी। शुरुआत में, उन्होंने हिंदुत्व और मराठी अस्मिता के मुद्दों को प्रमुखता दी, लेकिन समय के साथ उनका रुख नरम पड़ता गया। उद्धव ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन किया, जो शिवसेना की परंपरागत विचारधारा से पूरी तरह अलग था। इससे शिवसेना के पुराने सिपाही और समर्थक नाराज हो गए थे।
उद्धव ने हमेशा अपने पिता के मूल्यों को अपने साथ रखा, लेकिन उनकी विचारधारा में एक नरम रुख साफ दिखाई दे रहा था। जब उद्धव ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन किया, तो बीजेपी और शिवसेना के पुराने समर्थकों ने इसे बिल्कुल भी पसंद नहीं किया। कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने के बाद, उद्धव ने हमेशा खुद को बाल ठाकरे का असली उत्तराधिकारी माना, लेकिन यह कभी पूरी तरह सच्चाई साबित नहीं हो सका।
एकनाथ शिंदे ने की उद्धव ठाकरे से बगावत
यह सब तब बदला, जब एकनाथ शिंदे ने 2022 में उद्धव ठाकरे के खिलाफ बगावत की और शिवसेना को दो हिस्सों में बांट दिया। शिंदे, जो पहले शिवसेना में एक कद्दावर नेता थे, ने अपनी पार्टी का गठन किया और बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया। शिंदे ने दावा किया कि वे बाल ठाकरे की असली विचारधारा के उत्तराधिकारी हैं। उनके मुताबिक, बाल ठाकरे हमेशा हिंदुत्व और मराठी अस्मिता की बात करते थे, और यही विचारधारा अब उनके साथ है।
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जब शिंदे ने यह कदम उठाया, तो उनके साथ 40 विधायक और कुछ निर्दलीय विधायक भी थे, जिन्होंने उद्धव ठाकरे की सरकार गिरा दी। इसके बाद शिंदे ने अपनी शिवसेना का दावा किया, जो बीजेपी के साथ हिंदुत्व की राजनीति में विश्वास रखती थी। उन्होंने यह भी कहा कि यह वही शिवसेना है, जो बाल ठाकरे के असली सिद्धांतों पर चलती है।
शिंदे के इस कदम ने महाराष्ट्र की राजनीति को एक नया मोड़ दिया। हालांकि उद्धव ने उन्हें गद्दार कहा, लेकिन महाराष्ट्र की जनता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। शिंदे की पार्टी ने विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया और विधानसभा में अपनी जगह बनाई।
बाल ठाकरे की विरासत पर बीजेपी का कब्जा
राजनीतिक विशेषज्ञ पत्रकारों का मानना है कि बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत अब पूरी तरह से बीजेपी के हाथों में चली गई है। सरदेसाई के मुताबिक, “बाल ठाकरे की राजनीति को बीजेपी ने पूरी तरह से कैप्चर कर लिया है। अब बीजेपी ही हिंदुत्व और मराठी अस्मिता की राजनीति का सबसे बड़ा खिलाड़ी है।” उनके अनुसार, बाल ठाकरे की विचारधारा अब सिर्फ उद्धव या शिंदे की शिवसेना में नहीं, बल्कि बीजेपी के साथ जुड़ी हुई है। बीजेपी ने धीरे-धीरे इस राजनीति को अपने नियंत्रण में किया और अब कोई भी दल इसे चुनौती नहीं दे सकता।
बीजेपी ने अपनी हिंदुत्व की राजनीति को एक नई दिशा दी है और यह उसी राजनीति का हिस्सा बन चुका है, जिसकी शुरुआत बाल ठाकरे ने की थी। शिंदे का बीजेपी के साथ गठबंधन और उद्धव की नरम हिंदुत्व वाली राजनीति, दोनों में साफ अंतर दिखाई दे रहा है।
एकनाथ शिंदे की यह जीत बीजेपी के साथ मिलकर हुई है, लेकिन सवाल यह है कि क्या शिंदे भविष्य में बीजेपी से अलग हो सकते हैं? शिंदे को वर्तमान में बीजेपी का समर्थन हासिल है, लेकिन अगर वह भविष्य में बीजेपी से अलग होते हैं, तो उनकी राजनीतिक ताकत क्या होगी, यह पूरी तरह से भविष्य के चुनावी नतीजों पर निर्भर करेगा।
राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में केंद्रीय सत्ता लगातार बढ़ती जा रही है और अब राज्य स्तर के दलों के लिए अपनी जगह बनाना मुश्किल हो रहा है। बीजेपी ने धीरे-धीरे क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक ताकत को कमजोर किया है और भविष्य में यह स्थिति और भी गंभीर हो सकती है।
तो अब सवाल यह उठता है कि बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत अब किसके पास है? क्या वह अब सिर्फ बीजेपी के साथ जुड़ी हुई है? क्या उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे जैसे नेता इसे फिर से वापिस लाने में सफल हो पाएंगे?
आखिरकार, यह सवाल सिर्फ एक परिवार का नहीं, बल्कि महाराष्ट्र की राजनीति का है। बाल ठाकरे की असली विरासत किसके पास जाएगी, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन फिलहाल बीजेपी ने अपनी रणनीति से इसे पूरी तरह से अपने पक्ष में कर लिया है।
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