BJP के दिल्ली में तीन दशक लंबे संघर्ष की कहानी

27 साल के लंबे संघर्ष के बाद BJP की दिल्ली में वापसी, जानिए इस पार्टी के दिल्ली सफर की कहानी

बीजेपी पिछले 27 साल से दिल्ली की सत्ता से बाहर थी। उत्तर भारत में दिल्ली ही एकमात्र राज्य था, जहां वह सरकार नहीं बना पाई थी। लेकिन इस बार बीजेपी ने 48 सीटें जीतकर बड़ी सफलता हासिल की है।

अब ज़रा नज़र डालते हैं बीजेपी के पिछले करीब तीन दशकों के सफर पर। सत्ता से बाहर रहने के बावजूद बीजेपी और आरएसएस ने अपने समर्थकों, वोटरों और कार्यकर्ताओं को एकजुट बनाए रखा।

1993 में बीजेपी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की थी। उसे 43% वोट मिले थे और उसने 49 सीटों पर कब्जा जमाया था। लेकिन इसके बाद पार्टी के लिए मुश्किलें बढ़ती चली गईं।

पहले मदन लाल खुराना को मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन बाद में उन्हें हटाकर साहिब सिंह वर्मा को सीएम बना दिया गया। इस तरह बीजेपी अंदरूनी संघर्ष में उलझती रही, और धीरे-धीरे दिल्ली की सत्ता से दूर होती चली गई।

1993 में बनी थी सरकार 

BJP Delhi win

दिल्ली में उस दौर में प्याज के दाम काफी बढ़ गए थे। इसी बीच, बीजेपी ने साहिब सिंह वर्मा को हटाकर सुषमा स्वराज को दिल्ली का नया मुख्यमंत्री बना दिया।

सुषमा स्वराज के मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही दिनों बाद, 1998 में दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए। लेकिन बीजेपी को बड़ा झटका लगा और वह 70 में से सिर्फ 15 सीटें ही जीत पाई।

इसके बाद, 2003 के चुनाव में भी बीजेपी की हालत नहीं सुधरी और उसे सिर्फ 20 सीटें मिलीं। 2008 में भी पार्टी सिर्फ 23 सीटें ही जीत पाई।

2013 में जब कांग्रेस लगातार तीन बार सत्ता में रहने की वजह से एंटी-इनकम्बेंसी झेल रही थी, तब भी बीजेपी को बहुमत नहीं मिला और वह 31 सीटों पर ही सिमट गई।

इसी चुनाव में पहली बार आम आदमी पार्टी (AAP) ने एंट्री मारी और 28 सीटें जीत लीं। कांग्रेस ने उसे समर्थन दिया, जिससे दिल्ली में AAP की सरकार बनी।

दिल्ली की राजनीति में आया बदलाव 

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दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी (AAP) की एंट्री ने बड़ा बदलाव ला दिया। इसने जहां कांग्रेस का पूरी तरह सफाया कर दिया, वहीं बीजेपी के लिए भी मुश्किलें बढ़ा दीं।

अरविंद केजरीवाल की राजनीति और चुनावी रणनीति ने बीजेपी को 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में सिर्फ 3 सीटों तक सीमित कर दिया। 2020 के चुनाव में भी बीजेपी सिर्फ 8 सीटें ही जीत पाई। यह तब हुआ जब केंद्र में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री थे और 2014 व 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने दिल्ली की सभी 7 सीटें जीती थीं। लेकिन विधानसभा चुनाव में उसे लगातार हार का सामना करना पड़ा।

बीते 30 सालों में बीजेपी ने दिल्ली में कई मुद्दों पर आंदोलन किए, लेकिन वे चुनावी नतीजों में असर नहीं दिखा पाए। वहीं, आरएसएस ने दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में लगातार अपनी पकड़ बनाए रखी।

इस दौरान संघ से जुड़े संगठन भी सक्रिय थे, और उनकी छात्र इकाई एबीवीपी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ के चुनावों में कई पदों पर जीत हासिल की। संघ और इसके संगठनों की सक्रियता के कारण बीजेपी दिल्ली में कभी बहुत कमजोर पार्टी नहीं दिखी, और इसके वोट हमेशा एक सीमा के आसपास बने रहे।

बीजेपी के साथ एक और खास बात यह रही कि सत्ता से दूर होने के बावजूद इस पार्टी में कभी टूट-फूट नहीं आई। वरिष्ठ पत्रकार संजीव श्रीवास्तव का कहना है, “बीजेपी या लेफ्ट जैसे दल टूटते नहीं हैं। ये कैडर आधारित दल हैं, और उनका कैडर ही उनकी ताकत है।”

बीजेपी की हाल की जीत पर संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, “यह जीत ज़्यादा बीजेपी की नहीं, बल्कि आम आदमी पार्टी की हार है। बीजेपी का वोट बहुत ज्यादा नहीं बढ़ा है, बल्कि आप के वोट में कमी आई है। इसमें कांग्रेस के प्रदर्शन में थोड़ा सुधार भी देखा गया है।”

30 सालों का BJP का ‘वनवास’

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बीजेपी को इस जीत तक पहुंचने के लिए कई मुश्किल दौर से गुजरना पड़ा है। वरिष्ठ पत्रकार और दिल्ली की सियासत पर नज़र रखने वाले विनीत वाही कहते हैं, “तीस साल पहले प्याज की कीमतों ने बीजेपी को काफी परेशानी में डाला था, और उसका असर लंबे समय तक रहा।”

वह आगे बताते हैं, “बीजेपी के पास मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के बाद कोई ऐसा बड़ा चेहरा नहीं था जो ज़मीनी स्तर पर पार्टी को मजबूत कर सके, लेकिन बीजेपी ने हमेशा अपने कार्यकर्ताओं को जोड़े रखा और इसमें आरएसएस का भी बड़ा हाथ था।”

विनीत वाही ये भी कहते हैं, “बीजेपी ने इस मुश्किल समय में दिल्ली के पंजाबी, बनिया और दूसरे समुदायों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए लगातार कोशिश की। जैसे दिल्ली की आखिरी विधानसभा में विजेंद्र गुप्ता को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया, जो बनिया समुदाय से हैं, और पार्टी का अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा को बनाया गया, जो पंजाबी समुदाय से हैं।”

हाल के वर्षों में दिल्ली में पूर्वांचली समुदाय का चुनावी असर काफी बढ़ गया है, इसलिए बीजेपी ने इस समुदाय को अपने पक्ष में लाने की कोशिश की और मनोज तिवारी को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। इसी दौरान पार्टी ने आदेश गुप्ता, मनोज तिवारी, सतीष उपाध्याय, विजेंदर गुप्ता, हर्षवर्धन और ओपी कोहली जैसे नेताओं को राज्य में पार्टी की ज़िम्मेदारी दी। साथ ही, गुज्जर वोटरों को अपनी ओर खींचने के लिए रामवीर सिंह विधूड़ी को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बना दिया और रमेश विधूड़ी को लोकसभा का टिकट दिया।

दिल्ली MCD में जीत लेकिन विधानसभा में हार 

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विनीत वाही कहते हैं, “शीला दीक्षित के शासन में भी दिल्ली नगर निगम में बीजेपी की जीत हुई थी, जो बीजेपी को एक छोटी सी ही सही, जीत का अहसास दिलवाती थी और पार्टी के ज़मीनी नेताओं और कार्यकर्ताओं को जोड़कर रखती थी। उस समय दिल्ली नगर निगम और इसके मेयर के पास काफी अधिकार थे, और दिल्ली जैसे बड़े शहर के मेयर को बहुत ताक़तवर माना जाता था, जो बीजेपी के पास था।”

लेकिन, 2012 के दिल्ली नगर निगम चुनाव से पहले शीला दीक्षित की सरकार के दौरान नगर निगम को तीन हिस्सों में बांट दिया गया और मेयर के अधिकारों को भी सीमित कर दिया गया। इसके बावजूद, दिल्ली नगर निगम में बीजेपी की जीत उनके लिए एक मुश्किल भी बन गई थी। दिल्ली जैसे बड़े शहर में सफाई और स्वच्छता एक बड़ी चुनौती है। जब लोग घर से बाहर निकलते हैं, तो गंदगी और कूड़े का ढेर उनका ग़ुस्सा बढ़ाने का मुख्य कारण बन जाता है।

2022 में भी नगर निगम का चुनाव हारी BJP 

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नगर निगम के कर्मचारियों की सैलरी और अन्य समस्याओं को लेकर उनकी नाराज़गी अक्सर सड़कों पर दिखती रही है, जो कभी हड़ताल के रूप में तो कभी कूड़े के ढेर के रूप में सामने आई है। साल 2022 में बीजेपी नगर निगम की सत्ता से बाहर हो गई और दिल्ली के तीनों निगमों को मिलाकर एक कर दिया गया।

वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई का कहना है, “पिछली बार बीजेपी नगर निगम चुनावों में हार गई और आम आदमी पार्टी (आप) ने जीत हासिल की, जिससे ज़िम्मेदारी केजरीवाल पर आ गई। दिल्ली में सफाई और स्वच्छता को लेकर जो नाराज़गी लोगों में रहती है, वह इन चुनावों में केजरीवाल के खिलाफ नजर आई।”

रशीद किदवई के मुताबिक़, “बीजेपी ने अपनी जीत के लिए कड़ी मेहनत की है और उनकी माइक्रो मैनेजमेंट बहुत अच्छी रही है। ज़मीनी स्तर पर बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने बेहतरीन काम किया है, जिसके लिए अमित शाह की सराहना की जानी चाहिए। यहां तक कि इस रणनीति ने मुस्लिम बाहुल्य कुछ सीटों पर भी बीजेपी को जीत दिलाई।”

बीजेपी में शामिल होते रहें बड़े नेता 

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दिल्ली के चुनावी समीकरण को लेकर माना जाता है कि बीजेपी को वोटों के बंटवारे से फायदा हो सकता था। बीजेपी ने पिछले 27 सालों में अपने कार्यकर्ताओं को अच्छे से संभाल रखा और अपने वोट बैंक को बनाए रखा।

विनीत वाही का कहना है, “दिल्ली में आमतौर पर बीजेपी के नेता अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में नहीं गए, लेकिन दूसरी पार्टियों के कई बड़े नेता बीजेपी में शामिल हुए। यह दिखाता है कि पार्टी का संगठन अपने नेताओं और वोटरों पर मजबूत पकड़ बनाए हुए है।”

दिल्ली में शीला दीक्षित के समय कांग्रेस के मंत्री रहे राजकुमार चौहान, अरविंदर सिंह लवली और कई अन्य नेता अब बीजेपी में शामिल हो गए हैं। वहीं, आम आदमी पार्टी छोड़कर कपिल मिश्रा और कैलाश गहलोत जैसे नेता, जो दिल्ली की आप सरकार में मंत्री थे, अब बीजेपी का हिस्सा बन गए हैं। दिल्ली, जो देश की राजनीति का केंद्र है, यहां बीजेपी के नेता कई मुद्दों पर सक्रिय दिखाई दिए, लेकिन ये कोशिशें राज्य की सत्ता तक पहुंचने के लिए काफी नहीं हो पाई।

क्या था वोटों का बटवारा 

1993 में जब बीजेपी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की थी, तब वोटों के बंटवारे को इसकी सफलता की बड़ी वजह माना गया था। उस साल ‘जनता दल’ दिल्ली की राजनीति में एक तीसरी पार्टी के रूप में उभरी थी। उसने दिल्ली की सभी 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 12% से ज़्यादा वोट हासिल कर 4 सीटें जीती थीं। वहीं, कांग्रेस को लगभग 35% वोट मिले थे और उसने 14 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इस वोट बंटवारे का सीधा फायदा बीजेपी को हुआ था।

अब, 27 साल बाद जब बीजेपी ने दिल्ली में फिर से चुनाव जीत लिया है, तो इसमें पार्टी की मजबूत संगठन की सफलता के साथ-साथ वोटों के बंटवारे का भी अहम योगदान दिखता है। चुनाव आयोग के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, बीजेपी को लगभग 45% वोट मिले हैं, जबकि आम आदमी पार्टी (आप) को 43% वोट मिले हैं। दोनों पार्टियों के बीच वोटों का अंतर महज़ 2% का है। कांग्रेस को इस बार भी कोई सीट नहीं मिली, लेकिन उसने 6% से ज़्यादा वोट हासिल किए हैं, जो हारने और जीतने वाली पार्टी के बीच वोटों के अंतर से तीन गुना ज्यादा है।

 

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