ऑस्ट्रेलिया ने बच्चों के लिए टिकटॉक, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर लगाया बैन , जानें क्यों लिया गया इतना बड़ा फैसला?

Australia social media ban law:  आजकल बच्चे से लेकर बड़े तक, सभी का इंटरनेट और सोशल मीडिया से जुड़ाव बढ़ता जा रहा है। स्मार्टफोन और कंप्यूटर के जरिए लोग सोशल मीडिया पर अपनी ज़िंदगी के पल शेयर करते हैं, नए दोस्त बनाते हैं और दुनिया भर की जानकारी हासिल करते हैं। सोशल मीडिया और इंटरनेट अब बच्चों के लिए एक आकर्षक जगह बन गई है, जहां वे सिर्फ मस्ती करते हैं, बल्कि कई बार गंभीर मुद्दों पर भी जानकारी लेते हैं। लेकिन इस डिजिटल दुनिया के साथ-साथ कुछ खतरे भी हैं। बच्चों को ऑनलाइन हानिकारक कंटेंट, साइबरबुलिंग, नफरत फैलाने वाले संदेश और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए, ऑस्ट्रेलिया ने फैसला लिया है कि 16 साल से कम उम्र के बच्चों को फेसबुक, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट और टिकटॉक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर नहीं जाने दिया जाएगा। यह कदम बच्चों की सुरक्षा और उनकी मानसिक सेहत के लिए उठाया गया है। हालांकि, इस फैसले पर कुछ विशेषज्ञ और टेक कंपनियां अपनी आपत्ति जता रही हैं। उनका कहना है कि बच्चों की स्वतंत्रता पर इसका असर पड़ेगा और इसे लागू करने से पहले और रिसर्च की जरूरत है।

ऑस्ट्रेलिया का नया सोशल मीडिया कानून

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया की निचली संसद में एक अहम विधेयक पारित हुआ है, जिसके तहत 16 साल से कम उम्र के बच्चों को फेसबुक, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट और टिकटॉक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल करने से रोका जाएगा। अब यह विधेयक सीनेट में है, और अगर वहां से भी इसे मंजूरी मिल जाती है, तो यह कानून बन जाएगा। इस कानून का सबसे बड़ा पहलू ये है कि इसमें माता-पिता की सहमति की कोई छूट नहीं दी जाएगी। इसका मतलब है कि अगर बच्चे पहले से सोशल मीडिया पर अकाउंट बना चुके हैं, तो भी उन्हें इन प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं होगी।

इसके अलावा, सोशल मीडिया कंपनियों को एक साल का वक्त दिया जाएगा, ताकि वे अपने प्लेटफॉर्म्स पर यह प्रतिबंध लागू करने के तरीके ढूंढ सकें। अगर वे ऐसा करने में नाकाम रहते हैं, तो उन्हें 32.5 मिलियन डॉलर (करीब 270 करोड़ रुपये) का जुर्माना देना पड़ेगा।

australia social media ban for children

सरकार का तर्क: बच्चों की सुरक्षा और मानसिक सेहत

ऑस्ट्रेलियाई सरकार का कहना है कि सोशल मीडिया बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बन चुका है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, ऑस्ट्रेलिया में 14 से 17 साल के करीब 66% बच्चों ने ऑनलाइन हानिकारक कंटेंट देखा है, जैसे कि नशे की आदतें, आत्महत्या के विचार या खुद को नुकसान पहुंचाने वाले कंटेंट। इन चीजों को देखकर बच्चों को मानसिक तनाव हो सकता है, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है।

ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीजी ने कहा है कि उन्होंने कई माता-पिता से बात की है, जो अपने बच्चों के सोशल मीडिया के प्रभाव से परेशान हैं। उनका मानना है कि इस कदम से बच्चों को सोशल मीडिया के खतरों से बचाया जा सकेगा। ये कदम माता-पिता की चिंताओं को दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

टेक कंपनियों का विरोध

जहां एक ओर सरकार ने बच्चों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए यह कानून पेश किया है, वहीं दूसरी ओर कई विशेषज्ञ और टेक कंपनियां इस पर सवाल उठा रही हैं। ऑस्ट्रेलिया और दुनिया भर के 100 से ज्यादा विशेषज्ञों ने इस कानून के खिलाफ एक खुला पत्र लिखा है, जिसमें उनका कहना है कि यह कानून बहुत सख्त है। उनका तर्क है कि बच्चों के सोशल मीडिया पर जाने के असर पर कोई ठोस शोध नहीं किया गया है, और बिना सही अध्ययन के इस तरह की उम्र सीमा लगाना जल्दबाजी हो सकता है।

टेक कंपनियों का कहना है कि इस बिल को लागू करने से पहले सरकार को और डेटा और रिसर्च पर ध्यान देना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि यह कदम बच्चों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के अधिकारों को सीमित कर सकता है, और यह समस्या का स्थायी हल नहीं हो सकता।

युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर काम करने वाली संस्था “रीचआउट” ने भी इस कानून पर चिंता जताई है। संस्था का कहना है कि बहुत से युवा सोशल मीडिया के जरिए मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी मदद प्राप्त करते हैं, और अगर यह बैन लागू हो जाता है, तो इससे उनकी मदद मिलने में परेशानी हो सकती है।

दुनियाभर में बच्चों के लिए सोशल मीडिया सुरक्षा के कदम

ऑस्ट्रेलिया ने बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर कड़े नियम लागू करने की शुरुआत की है, और इसके बाद अब दुनिया के कई दूसरे देशों में भी बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा के लिए कदम उठाए जा रहे हैं। आइए जानते हैं कि बाकी देशों ने इस दिशा में क्या कदम उठाए हैं और उनका क्या प्लान है।

अमेरिका

अमेरिका ने बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा को लेकर बहुत पहले कदम उठाए थे। 26 साल पहले, यानी 1998 में “चिल्ड्रन ऑनलाइन प्राइवेसी प्रोटेक्शन एक्ट” (COPPA) लागू किया गया था। इसके तहत, 13 साल से छोटे बच्चों से कोई भी जानकारी एकत्र करने से पहले वेबसाइटों को उनके माता-पिता से अनुमति लेनी होती है। इसके अलावा, 2000 में “चिल्ड्रन इंटरनेट प्रोटेक्शन एक्ट” (CIPA) लागू किया गया था, जिसका उद्देश्य था कि बच्चों को स्कूलों और लाइब्रेरी में इंटरनेट पर अनावश्यक और हानिकारक कंटेंट से बचाया जा सके। इसके तहत इंटरनेट फिल्टर लगाने का नियम था। हालांकि, इन कानूनों पर आलोचनाएं भी हैं। कुछ लोगों का मानना है कि ये कानून बच्चों के बीच धोखाधड़ी को बढ़ावा दे सकते हैं, और इससे बच्चों की निजता और स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है, क्योंकि उनकी जानकारी और अभिव्यक्ति के अधिकारों को सीमित किया जा रहा है।

ब्रिटेन

ब्रिटेन भी अब ऑस्ट्रेलिया की तरह 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रहा है। ब्रिटेन के टेक्नोलॉजी सेक्रेटरी पीटर काइल ने कहा है कि वे बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जो भी कदम उठाने होंगे, वे उठाने के लिए तैयार हैं। ब्रिटेन ने इस दिशा में “ऑनलाइन सेफ्टी बिल” भी पेश किया है, जिसके तहत सोशल मीडिया कंपनियों को बच्चों के लिए हानिकारक कंटेंट को रोकने के लिए और अधिक जिम्मेदारी दी जा रही है। यह बिल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को ये निर्देश देगा कि वे बच्चों को ऑनलाइन खतरे से बचाने के लिए ठोस कदम उठाएं।

फ्रांस

फ्रांस में भी बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा को लेकर कुछ कड़े कदम उठाए गए हैं। यहां 15 साल तक के बच्चों के लिए स्कूलों में मोबाइल फोन पर बैन लगाने का ट्रायल शुरू किया गया है। अगर यह ट्रायल सफल रहता है, तो इसे पूरे देश में लागू किया जा सकता है। इसके अलावा, फ्रांस में 15 साल से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया इस्तेमाल करने के लिए माता-पिता की अनुमति प्राप्त करनी होती है। यह कदम बच्चों को इंटरनेट पर सुरक्षित रखने और उनके मानसिक स्वास्थ्य को बचाने के उद्देश्य से उठाया गया है।

नॉर्वे

नॉर्वे जैसे दूसरे यूरोपीय देशों ने भी सोशल मीडिया की उम्र सीमा को लेकर नए नियम बनाए हैं। हाल ही में नॉर्वे ने यह घोषणा की है कि सोशल मीडिया पर इस्तेमाल की उम्र सीमा को 13 से बढ़ाकर 15 साल किया जाएगा। यह कदम बच्चों के लिए ऑनलाइन दुनिया को सुरक्षित बनाने के लिए उठाया गया है। नॉर्वे का मानना है कि इससे बच्चों की मानसिक और शारीरिक सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी।