दिल्ली हाई कोर्ट ने शाही ईदगाह समिति को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा है कि वे रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति को लेकर सांप्रदायिक राजनीति न करें। यह विवाद तब शुरू हुआ जब दिल्ली सरकार के लोक निर्माण विभाग ने 2016-17 में एक प्रोजेक्ट के तहत रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति को स्थानांतरित करने का फैसला किया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि रानी लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक हैं और इतिहास को विभाजनकारी तरीके से पेश करना सही नहीं है। कोर्ट ने शाही ईदगाह समिति से माफी मांगने के लिए भी कहा, जिसे समिति ने स्वीकार कर लिया है। मामले की सुनवाई अब अगले हफ्ते 1 अक्टूबर को होगी।
क्यों शुरू हुआ विवाद?
दिल्ली सरकार के लोक निर्माण विभाग ने झांसी की रानी की मूर्ति को एक प्रोजेक्ट के तहत तीस हजारी से फिमिस्तान होते हुए पंचकुइया रोड की ओर सिग्नल फ्री रोड बनाने के लिए शिफ्ट करने का निर्णय लिया। डीडीए ने मूर्ति को लगाने के लिए ईदगाह के पास जमीन दे दी, लेकिन शाही ईदगाह समिति ने इसके खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका दायर की। कोर्ट ने इस जमीन को सरकारी घोषित किया, जबकि ईदगाह समिति ने इसे वक्फ बोर्ड की संपत्ति बताया।
दिल्ली हाई कोर्ट में शाही ईदगाह मैनेजमेंट कमेटी ने बिना शर्त माफी के साथ एक हलफनामा दायर किया है। यह कमेटी पहले रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा को शाही ईदगाह पार्क में स्थापित करने के खिलाफ याचिका दायर कर चुकी थी। कोर्ट ने कमेटी को फटकार लगाते हुए कहा था कि उनकी दलीलें निंदनीय और सांप्रदायिक हैं।
पिछली सुनवाई में कमेटी ने कहा था कि वे अपनी याचिका वापस ले रहे हैं, लेकिन कोर्ट ने उनसे माफी मांगने का आदेश दिया था। इसके साथ ही, एकल न्यायाधीश के खिलाफ लगाए गए आरोपों को भी हटाने के लिए आवेदन देने को कहा था, जिन्होंने उनकी याचिका खारिज की थी।
आज की सुनवाई में हाई कोर्ट को बताया गया कि माफी का दस्तावेज रजिस्ट्री में जमा करा दिया गया है, लेकिन इसे अभी रिकॉर्ड पर नहीं लाया गया है। मुस्लिम पक्ष ने भी कोर्ट में कहा कि आदेश के अनुसार माफीनामा पेश किया गया है। अब दस्तावेजों को रिकॉर्ड में शामिल करने के लिए सुनवाई मंगलवार तक टाल दी गई है।
सांप्रदायिक राजनीति पर कोर्ट की टिप्पणी
शाही ईदगाह समिति ने अदालत में यह तर्क दिया कि रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा लगाने से क्षेत्र में कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि दिल्ली अल्पसंख्यक समिति पहले ही यथास्थिति का आदेश पारित कर चुकी है और इसलिए मूर्ति स्थापित नहीं की जा सकती। हालांकि, डीडीए के वकील ने इन दलीलों को “निंदनीय” बताया और कोर्ट को सूचित किया कि उन्हें सिंगल जज के आदेश के तहत कार्रवाई करने की अनुमति मिली है।
वहीं जस्टिस मनमोहन ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि कोर्ट के जरिए सांप्रदायिक राजनीति खेली जा रही है। उन्होंने कहा, “आप इसे ऐसे पेश कर रहे हैं जैसे यह एक धार्मिक मसला है, लेकिन यह कानून और व्यवस्था की स्थिति है। झांसी की रानी की प्रतिमा होना गर्व की बात है। हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं और आपके पास एक मुद्दा है।”
कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि वे इस मामले में कोई समझौता नहीं करेंगे। अगली सुनवाई 1 अक्टूबर को होगी, जिसमें सभी पक्षों को अपनी दलीलें प्रस्तुत करनी होंगी। दिल्ली हाई कोर्ट का यह निर्णय इस बात को दर्शाता है कि राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान कितना महत्वपूर्ण है। रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति की स्थापना के पीछे का यह मुद्दा केवल एक मूर्ति का नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का है। सभी पक्षों को चाहिए कि वे इस मुद्दे को समझदारी और शांतिपूर्वक सुलझाएं ताकि देश में एकता और सद्भाव बना रहे।