EU Emergency Meeting

EU ने बुलाई आपातकालीन मीटिंग, ट्रंप ने मिलिट्री ऐड पर लगाई रोक के बाद यूरोप में बना डर का माहौल

रूस और यूक्रेन की लड़ाई अब सिर्फ इन दो देशों तक सीमित नहीं रही, बल्कि दुनिया के कई देशों के लिए चिंता का कारण बन गई है। हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति की कड़ी चेतावनी के बाद यूरोपीय संघ के देशों ने एक आपात बैठक बुलाई, जिसमें यूक्रेन के राष्ट्रपति को भी बुलाया गया। इस बैठक में यूक्रेन को समर्थन देने के साथ-साथ यूरोप की अपनी सुरक्षा पर भी चर्चा हो रही है।

अब तक अमेरिका यूक्रेन के समर्थन में था, लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद हालात बदल गए हैं। उन्होंने साफ कह दिया है कि अमेरिका अब इस युद्ध में अपना पैसा बर्बाद नहीं करेगा। अगर अमेरिका ने वाकई अपना समर्थन हटा लिया, तो यूक्रेन के लिए लड़ाई जारी रखना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

27 यूरोपीय देशों की हुई आपात बैठक 

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यूरोप अब इस युद्ध को पहले से ज्यादा गंभीरता से लेने लगा है। उसे चिंता है कि अगर रूस ने यूक्रेन पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली, तो जल्द ही यूरोप के दूसरे देशों पर भी खतरा बढ़ सकता है। अब तक यूरोप अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका और नाटो पर निर्भर था, लेकिन मौजूदा हालात में उसे अपनी रक्षा व्यवस्था को खुद मजबूत करने की जरूरत महसूस हो रही है। इसी वजह से ब्रुसेल्स में 27 यूरोपीय देशों की एक आपात बैठक हुई, जिसमें कुछ अहम फैसले लिए गए।

यूरोप ने रक्षा बजट बढ़ाया, यूक्रेन को मिला समर्थन 

रक्षा बजट में बढ़ोतरी: यूरोपीय नेताओं ने अपनी सैन्य ताकत बढ़ाने के लिए €800 बिलियन पाउंड की योजना को मंजूरी दी है। इसका मकसद बाहरी देशों पर सैन्य सहायता के लिए निर्भरता कम करना और किसी भी खतरे से निपटने के लिए तैयार रहना है।

यूक्रेन को समर्थन जारी रहेगा: यूक्रेन के राष्ट्रपति वलोडिमिर ज़ेलेंस्की ने यूरोपीय नेताओं के सम्मेलन में हिस्सा लिया, जहां उन्हें भरोसा दिलाया गया कि यूरोप उनका समर्थन जारी रखेगा। नेताओं ने कहा कि यूक्रेन की सुरक्षा, पूरे महाद्वीप की स्थिरता के लिए जरूरी है।

‘इच्छुक देशों के गठबंधन’ का प्रस्ताव: ब्रिटेन ने एक नया गठबंधन बनाने का सुझाव दिया, जो यूक्रेन की रक्षा और भविष्य के शांति समझौतों को बनाए रखने पर काम करेगा। आयरलैंड ने इसमें शामिल होने की इच्छा जताई, लेकिन कहा कि वह अपने सैनिक नहीं भेजेगा, बल्कि शांति मिशन में भूमिका निभाएगा।

फ्रांस की परमाणु सुरक्षा योजना  

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने प्रस्ताव दिया कि फ्रांस अपनी परमाणु सुरक्षा यूरोप के अन्य देशों तक बढ़ा सकता है। लिथुआनिया और पोलैंड ने इस विचार का समर्थन किया, लेकिन कुछ देशों ने NATO में अमेरिका की भागीदारी बनाए रखने की जरूरत पर जोर दिया।

यूरोप के पास इस मुश्किल से निकलने के और क्या रास्ते हो सकते है?

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यूरोप के सामने अब कुछ बड़े फैसले लेने का समय आ गया है। अब तक वह अपनी सुरक्षा के लिए नाटो (NATO) पर निर्भर था, जिसमें अमेरिका सबसे बड़ा सहयोगी रहा है। लेकिन अगर अमेरिका पीछे हटता है, तो यूरोप को अपनी सुरक्षा खुद संभालनी होगी।

इसी के चलते हाल ही में ‘ईयू रैपिड डिप्लॉयमेंट कैपेसिटी’ पर चर्चा हो रही है। यह यूरोप की अपनी अलग सेना हो सकती है, जिसमें करीब 5,000 सैनिक होंगे। यह फोर्स ज़रूरत पड़ने पर तुरंत कार्रवाई कर सकेगी, चाहे वह ज़मीनी हो, हवाई हो या समुद्री अभियान। उम्मीद की जा रही है कि यह सुरक्षा तंत्र साल के अंत तक तैयार हो जाएगा।

फ्रांस और जर्मनी होंगे अहम 

फ्रांस और जर्मनी इस पूरे घटनाक्रम में अहम भूमिका निभा सकते हैं। फ्रांस के पास परमाणु हथियार हैं और जर्मनी पहले ही अपने रक्षा बजट को बढ़ाने की बात कर चुका है। ये दोनों देश मिलकर नाटो की तर्ज पर एक अलग संगठन बना सकते हैं, लेकिन यह आसान नहीं होगा क्योंकि नाटो में पूरा यूरोप और अमेरिका शामिल था, जबकि यहां यूरोपीय संघ के केवल कुछ ही देश होंगे, जिनके पास सीमित संसाधन और बजट रहेगा। इससे यूरोपीय संघ के भीतर ही अमेरिका और यूरोप के बीच नए तनाव पैदा हो सकते हैं।

यूरोप खुद रूस से करे बातचीत

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एक अन्य विकल्प यह भी हो सकता है कि यूरोप खुद रूस से बातचीत कर किसी समझौते पर पहुंचने की कोशिश करे। हालांकि, इसकी संभावना कम ही नजर आती है क्योंकि अमेरिका के साथ चलने के चक्कर में यूरोप ने रूस के साथ अपने रिश्ते पहले ही काफी खराब कर लिए हैं। फिर भी, अगर ट्रंप पीछे हटते हैं तो कुछ यूरोपीय देश यूरोपीय संघ पर दबाव बना सकते हैं कि वह मॉस्को के साथ वार्ता करे। रूस भी लंबे समय से पश्चिमी बाजार से कटा हुआ है, ऐसे में अगर यूरोप कोई पहल करता है तो मॉस्को को भी शायद इससे आपत्ति न हो।

क्या रूस से सम्बन्ध सुधारना हो सकता है समाधान?

कुछ यूरोपीय देश इस मामले में शांति वार्ता की पहल कर सकते हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों पहले भी पुतिन से बातचीत के पक्ष में रहे हैं। हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बान खुले तौर पर रूस का समर्थन करते आए हैं। इटली भी शांति वार्ता का पक्षधर है और रूस से बातचीत का समर्थन कर सकता है, जबकि ऑस्ट्रिया हमेशा रूस के साथ संतुलित संबंध बनाए रखने की कोशिश करता रहा है।

लेकिन कुछ देश रूस से किसी भी तरह की बातचीत के खिलाफ हैं। बाल्टिक देश—लिथुआनिया, लातविया और एस्टोनिया—रूस को अपने लिए बड़ा खतरा मानते हैं, क्योंकि वे कभी सोवियत संघ का हिस्सा थे और उनकी सीमाएं रूस से मिलती हैं। फिनलैंड भी रूस के करीब है और हमेशा सतर्क रहता है। वहीं, पोलैंड सबसे ज्यादा सख्त रुख अपनाए हुए है, क्योंकि उसे डर है कि अगर रूस ने यूक्रेन पर पूरी तरह कब्जा कर लिया, तो अगला निशाना वह खुद बन सकता है।

NATO के अन्य देशों के साथ डाले अमेरिका पर दवाब 

यूरोप एक और तरीका अपना सकता है – वह नाटो के दूसरे देशों जैसे ब्रिटेन, कनाडा और तुर्की से अपने रिश्ते मजबूत करे और मिलकर अमेरिका पर दबाव बनाए। इसके अलावा, यूरोप अपने आर्थिक और व्यापारिक संबंधों का फायदा उठाकर अमेरिका को मनाने की कोशिश कर सकता है। चूंकि यूरोप में अमेरिकी कंपनियों का बड़ा निवेश है, इसलिए इसका फायदा उठाकर अमेरिका को अपनी बात मानने के लिए राजी किया जा सकता है।

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यूक्रेन को अकेला भी छोड़ सकता है यूरोप  

यूरोप यूक्रेन को सैन्य रूप से मजबूत बनाकर फिर उसे अकेला छोड़ सकता है। यूरोपियन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस (ECFR) का मानना है कि यूरोप रूस पर और सख्त प्रतिबंध लगा सकता है और उसकी फ्रीज की गई संपत्तियों से आर्थिक लाभ उठाकर यूक्रेन की मदद कर सकता है। लेकिन, कुछ समय बाद यूरोपीय देश यूक्रेन से हाथ खींच सकते हैं, जिससे उसे खुद अपनी लड़ाई लड़नी होगी।

इस बीच, यूरोप के देशों के बीच मतभेद उभरने लगे हैं। हंगरी और इटली के नेताओं ने साफ कर दिया है कि वे यूक्रेन-रूस युद्ध को लेकर अलग सोच रखते हैं। इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी पहले ही कह चुकी हैं कि वे अपनी सेना को इस युद्ध में नहीं भेजेंगी। यह दिखाता है कि यूरोप के देशों में इस मुद्दे पर एकता नहीं है, और भविष्य में यह मतभेद और गहरे हो सकते हैं।

 

 

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