नेहरू युग के इतिहासकारों ने मुगलों-अंग्रेजों का महिमामंडन किया, भारतीय नायकों की हुई अनदेखी!

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) की वाइस चांसलर शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित ने पुणे में एक कार्यक्रम के दौरान इतिहास लेखन पर चौंकाने वाले खुलासे किए। उन्होंने कहा कि नेहरू युग के इतिहासकारों ने मुगलों और अंग्रेजों का महिमामंडन किया, जबकि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों और सांस्कृतिक पुनर्जागरण को उचित स्थान नहीं दिया। उन्होंने इतिहास के राजनीतिकरण पर गहरी चिंता जताई और कहा कि अगर हमें अपना इतिहास नहीं पता, तो इसका मतलब है कि हम कल ही पैदा हुए हैं।

इतिहास का राजनीतिकरण: क्या कहा JNU VC ने?

शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित ने कहा कि इतिहास को राजनीतिक विचारधाराओं के अनुरूप तोड़ने-मरोड़ने की प्रवृत्ति केवल नेताओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह अकादमिक जगत में भी फैल गई है। उन्होंने प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार का हवाला देते हुए कहा कि JNU और अन्य विश्वविद्यालयों के इतिहासकारों ने तथ्यों के बजाय अपनी विचारधारा को प्राथमिकता दी है। इससे वास्तविक ऐतिहासिक घटनाएं और नायकों की गाथाएं दब गई हैं।

मुगलों और अंग्रेजों का महिमामंडन

JNU VC ने कहा कि मुगल बादशाहों और अंग्रेजों का महिमामंडन भारतीय इतिहास लेखन का एक प्रमुख दोष रहा है। उन्होंने कहा कि इतिहासकारों ने अकबर, औरंगजेब और अन्य मुगल शासकों को उदार और महान शासक के रूप में प्रस्तुत किया, जबकि छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और रानी लक्ष्मीबाई जैसे योद्धाओं को उचित महत्व नहीं दिया गया। उन्होंने इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण के लिए विशेष रूप से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे संस्थानों के इतिहासकारों को जिम्मेदार ठहराया।

वामपंथी इतिहासकारों का प्रभाव

शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित ने स्वीकार किया कि वामपंथी विचारधारा के इतिहासकारों ने अपने नैरेटिव को प्रभावी ढंग से स्थापित किया है। उन्होंने कहा कि वामपंथी इतिहासकारों ने पाठ्यक्रम और अकादमिक क्षेत्रों में अपनी विचारधारा को सफलतापूर्वक स्थापित किया, जबकि दक्षिणपंथी शिक्षाविद इस क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर सके।

धर्म का सही अर्थ और औपनिवेशिक प्रभाव

धूलिपुड़ी पंडित ने ब्रिटिश शासनकाल में प्रचारित ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ को पूर्णतः काल्पनिक और औपनिवेशिक षड्यंत्र करार दिया। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने भारतीय सभ्यता को ‘बर्बर’ और स्वयं को ‘सभ्य’ दिखाने के लिए इस सिद्धांत को गढ़ा। उन्होंने ‘धर्म’ की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए कहा कि धर्म का अर्थ केवल धार्मिक आस्था नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण जीवन जीने की प्रणाली है, जो व्यक्ति, समाज और प्रकृति के साथ संतुलन पर आधारित है।

प्राचीन भारत में नारीवाद

कुछ इतिहासकारों द्वारा प्राचीन भारतीय समाज को महिला विरोधी बताए जाने के दावों को खारिज करते हुए, उन्होंने कहा कि भारत दुनिया की सबसे नारीवादी सभ्यता थी। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि शक्ति (दुर्गा), ज्ञान (सरस्वती) और धन (लक्ष्मी) जैसी प्रमुख अवधारणाएं स्त्री रूप में पूजी जाती हैं। भारतीय दर्शन पुरुष और स्त्री को विरोधी नहीं, बल्कि पूरक मानता है, यही कारण है कि ‘अर्धनारीश्वर’ की अवधारणा यहां प्रचलित रही है।

छात्र राजनीति और शिक्षण संस्थानों पर प्रभाव

शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित ने छात्र सक्रियता (Student Activism) के महत्व को स्वीकारते हुए कहा कि छात्र आंदोलन सामाजिक और राजनीतिक बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि किसी भी विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित होना खतरनाक हो सकता है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि शिक्षण संस्थानों को किसी एक विचारधारा तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि छात्रों को विभिन्न दृष्टिकोणों से अवगत कराया जाना चाहिए।

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