दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से 15 करोड़ रुपये की नकदी मिलने का मामला सुर्खियों में है। 14 मार्च 2025 को उनके घर में लगी आग के बाद दमकलकर्मियों ने अधजले नोटों की बोरियाँ बरामद कीं, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इन-हाउस जांच शुरू की और उनकी ज्यूडिशियल ड्यूटी पर रोक लगा दी। लेकिन सवाल यह है कि इतनी बड़ी रकम मिलने के बावजूद उनके खिलाफ FIR क्यों नहीं दर्ज हुई? जवाब कानून और संविधान की उस जटिल प्रक्रिया में छिपा है, जो जजों को विशेष संरक्षण देती है। आइए, इसे रोचक और आसान अंदाज़ में समझते हैं।
आग से निकला “कैश का भूत”
14 मार्च की रात जस्टिस वर्मा के लुटियंस दिल्ली स्थित बंगले में आग लगी। वे उस वक्त भोपाल में थे, और घर पर उनकी बेटी व बुजुर्ग माँ थीं। दमकलकर्मियों ने आग बुझाई तो स्टोररूम में 4-5 बोरियों में अधजले नोट मिले। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी पुष्टि करते हुए वीडियो जारी किया, जिसमें एक दमकलकर्मी को कहते सुना गया, “महात्मा गांधी में आग लग गई!” यानी नोट जल रहे थे। दिल्ली पुलिस ने भी इसकी सूचना चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) संजीव खन्ना को दी। लेकिन इसके बाद जो हुआ, वो आम केस से बिल्कुल अलग था।
जस्टिस वर्मा का दावा: “यह मेरा पैसा नहीं”
जस्टिस वर्मा ने 22 मार्च को दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस डीके उपाध्याय को जवाब दिया कि यह कैश उनका या उनके परिवार का नहीं है। उन्होंने इसे “साजिश” करार दिया, यह कहते हुए कि स्टोररूम में पुराना सामान रखा था और यह जगह स्टाफ व बाहरी लोगों के लिए खुली थी। उन्होंने यह भी दावा किया कि 15 मार्च की सुबह जब मलबा हटाया गया, तो वहाँ कोई कैश नहीं था, और न ही उन्हें कोई बरामदगी दिखाई गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के वीडियो और पुलिस रिपोर्ट उनके दावे से उलट संकेत देते हैं।
FIR क्यों नहीं? कानून का “जजों वाला ट्विस्ट”
अब असली सवाल: इतना कैश मिला, फिर भी FIR क्यों नहीं? इसका जवाब 1991 के वीरास्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में है। तब तमिलनाडु के पूर्व चीफ जस्टिस के. वीरास्वामी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जज “पब्लिक सर्वेंट” हैं, और प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट उनके खिलाफ लागू हो सकता है। लेकिन यहाँ पेंच है—ऐसे जज के खिलाफ FIR या केस तभी शुरू हो सकता है, जब राष्ट्रपति इसकी मंजूरी दें। और राष्ट्रपति यह मंजूरी CJI की सलाह के बिना नहीं दे सकते।
यानी, जस्टिस वर्मा पर FIR दर्ज करने के लिए CJI संजीव खन्ना को राष्ट्रपति को लिखना होगा कि “हाँ, यह केस बनता है।” अगर CJI को लगता है कि मामला FIR तक नहीं जाना चाहिए, तो वह आगे नहीं बढ़ेगा। अभी CJI ने इसके बजाय इन-हाउस जांच का रास्ता चुना है, जो जजों के खिलाफ आरोपों की जाँच का पहला कदम है।
इन-हाउस जांच: जजों का “इंटरनल डिटेक्टिव गेम”
1995 में सुप्रीम कोर्ट ने जजों के खिलाफ शिकायतों के लिए इन-हाउस प्रक्रिया बनाई। इसमें पहले जज से जवाब माँगा जाता है। अगर जवाब संतोषजनक नहीं या मामला गंभीर है, तो CJI तीन जजों की कमेटी बनाते हैं। जस्टिस वर्मा के केस में CJI ने 22 मार्च को ऐसा ही किया—पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के CJ शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के CJ जीएस संधवालिया और कर्नाटक हाईकोर्ट की जज अनु शिवरामन की कमेटी गठित की गई। इस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर CJI तय करेंगे कि आगे क्या करना है—जस्टिस वर्मा से इस्तीफा माँगना, या राष्ट्रपति को FIR की सिफारिश करना।
इस्तीफा, महाभियोग या कुछ और?
अगर कमेटी की रिपोर्ट में दम निकला, तो CJI जस्टिस वर्मा से इस्तीफा या वॉलंट्री रिटायरमेंट लेने को कह सकते हैं। मना करने पर मामला महाभियोग तक जा सकता है। संविधान के आर्टिकल 124(4) और 217(1) के तहत जज को हटाने के लिए संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया जाता है। इसके लिए लोकसभा के 100 और राज्यसभा के 50 सांसदों का समर्थन चाहिए। दोनों सदनों से पास होने के बाद राष्ट्रपति जज को हटा सकते हैं। लेकिन भारत में आज तक किसी जज को महाभियोग से नहीं हटाया गया—कई कोशिशें हुईं, पर सफलता नहीं मिली।
तो FIR का इंतज़ार क्यों नहीं?
जजों को यह संरक्षण इसलिए दिया गया है ताकि उनकी स्वतंत्रता बनी रहे और कोई भी बिना ठोस सबूत के उन पर उँगली न उठा सके। लेकिन यह सवाल भी उठता है कि क्या यह प्रक्रिया पारदर्शिता की कमी को जन्म देती है? जस्टिस वर्मा का मामला अभी इन-हाउस जांच के चरण में है। अगर CJI को लगता है कि यह सिर्फ साजिश है या सबूत कमज़ोर हैं, तो FIR का सवाल ही नहीं उठेगा। लेकिन अगर कमेटी गंभीर नतीजे लाती है, तो यह मामला संसद तक जा सकता है।
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