What is the Myth of Deputy CM in Maharashtra Politics: महाराष्ट्र की राजनीति में एक ऐसा रहस्यमय मिथक बना हुआ है, जो पिछले 46 सालों से टूटने का नाम ही नहीं ले रहा। इस राज्य में अब तक 9 नेताओं को डिप्टी सीएम के पद पर नियुक्त किया गया है, लेकिन इनमें से किसी को भी मुख्यमंत्री बनने का अवसर नहीं मिला। क्या इस बार यह मिथक टूटेगा? क्या देवेंद्र फडणवीस, जो बीजेपी के सबसे प्रमुख नेताओं में से एक हैं, इस मिथक को तोड़ने में सफल हो पाएंगे? यह सवाल आजकल महाराष्ट्र की सियासत में सबसे ज्यादा पूछा जा रहा है।
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पिछले कई दशकों से राज्य की सियासत में हर सरकार के गठन के साथ डिप्टी सीएम के पद पर नए चेहरे आते रहे हैं, लेकिन हर बार मुख्यमंत्री बनने का रास्ता किसी ना किसी वजह से बंद हो गया। अब बीजेपी और शिवसेना के गठबंधन में देवेंद्र फडणवीस का नाम सीएम के लिए प्रमुख दावेदार के रूप में लिया जा रहा है, लेकिन क्या उनका भाग्य भी पिछले डिप्टी सीएम के जैसा होगा? क्या उनका नाम भी महाराष्ट्र के इस ऐतिहासिक मिथक में शामिल हो जाएगा, या फिर वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने में कामयाब हो पाएंगे?
नासिक राव त्रिपुडे से हुई थी शुरुआत
महाराष्ट्र के राजनीतिक इतिहास में पहला डिप्टी सीएम बनने का सौभाग्य नासिक राव त्रिपुडे को मिला। 1978 में जब वसंतदादा पाटिल मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने त्रिपुडे को अपने कैबिनेट में डिप्टी सीएम की जिम्मेदारी दी। त्रिपुडे ने मात्र तीन महीने तक इस पद पर काम किया, लेकिन जब शरद पवार ने सत्ता में कदम रखा, तो त्रिपुडे को यह पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद त्रिपुडे की राजनीति में उतना प्रभाव नहीं रहा और वे मुख्यधारा की राजनीति से बाहर हो गए। 1983 में त्रिपुडे के सीएम बनने की चर्चा जरूर हुई, लेकिन वे वसंतदादा पाटिल से हार गए और कभी भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंचे।
शरद पवार के बाद सुंदरराव सोलंके का दौर
शरद पवार के मुख्यमंत्री बनने के बाद, 1983 में सुंदरराव सोलंके को डिप्टी सीएम की जिम्मेदारी दी गई। सोलंके ने एक साल तक इस पद पर काम किया, लेकिन जब पवार की सरकार गिरी, तो सोलंके भी साइडलाइन हो गए। वे महाराष्ट्र में बीड और परली के प्रमुख नेता थे, लेकिन फिर कभी सियासत में ऐसा उबाल नहीं आया, जिससे वे मुख्यमंत्री बनने के करीब आ सके। 2014 में उनका निधन हो गया, और उनके नाम के साथ भी मुख्यमंत्री बनने का सपना अधूरा ही रह गया।
रामराव अदिक और गोपीनाथ मुंडे का नाम भी जुड़ा
1983 में वसंतदादा पाटिल ने कांग्रेस नेता रामराव अदिक को डिप्टी सीएम बनाया। अदिक एक मशहूर वकील थे, और अपने तर्कों के लिए प्रसिद्ध थे। हालांकि, उन्हें भी कभी मुख्यमंत्री बनने का मौका नहीं मिला। वहीं, 1995 में जब शिवसेना और बीजेपी का गठबंधन महाराष्ट्र में सत्ता में आया, तो बीजेपी ने गोपीनाथ मुंडे को डिप्टी सीएम बनाने का फैसला लिया। मुंडे ने करीब पांच साल तक इस पद का कार्यभार संभाला, लेकिन 1999 के चुनाव में गठबंधन हार गया और मुंडे को केंद्रीय राजनीति में आना पड़ा। 2014 में मुंडे केंद्रीय मंत्री बने, लेकिन उनका मुख्यमंत्री बनने का सपना भी अधूरा ही रह गया।
छगन भुजबल और अजित पवार की सियासी राह
महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी के गठबंधन के बाद, 1999 में छगन भुजबल को डिप्टी सीएम का पद मिला। भुजबल उस वक्त बेहद लोकप्रिय नेता थे, और उनके मुख्यमंत्री बनने की चर्चा भी खूब चली। हालांकि, 2003 में एक आरोप के बाद उनका करियर ठहर गया। भुजबल को साइडलाइन किया गया और वे कभी भी मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। उनकी सियासी वापसी 2019 में हुई, लेकिन मंत्री पद तक ही उनकी सियासत सीमित रही।
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अब बात करते हैं अजित पवार की। अजित पवार ने 2010 में पहली बार डिप्टी सीएम बनने का मौका पाया और इसके बाद वे कई बार इस पद पर बने रहे। अजित पवार ने कई बार मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जताई, लेकिन उन्हें कभी मुख्यमंत्री बनने का मौका नहीं मिला। सियासी समीकरण और जनाधार की कमी के कारण अजित का यह सपना अधूरा ही रह गया। अजित की डिप्टी सीएम बनने की चर्चा अब भी जारी है, लेकिन क्या वे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाएंगे, यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है।
क्या देवेंद्र फडणवीस इस मिथक को तोड़ पाएंगे?
अब इस मिथक को तोड़ने की जिम्मेदारी देवेंद्र फडणवीस पर आ गई है। 2014 में फडणवीस को मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला था, लेकिन 2019 में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूटने के बाद फडणवीस को उपमुख्यमंत्री बना दिया गया। इसके बाद, शिंदे के नेतृत्व में नई सरकार बनी और फिर से यह सवाल उठने लगा कि क्या फडणवीस इस बार मुख्यमंत्री बन पाएंगे?
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सियासी हलचल के बीच, बीजेपी के अंदर और बाहर यह चर्चा जोरों पर है कि क्या फडणवीस इस मिथक को तोड़कर मुख्यमंत्री बन पाएंगे या फिर महाराष्ट्र की राजनीति में यह सिलसिला वैसा का वैसा ही रहेगा? आगामी चुनाव और राजनीतिक समीकरणों के आधार पर यह फैसला होगा कि महाराष्ट्र का यह ऐतिहासिक मिथक टूटता है या फिर यह इतिहास और राजनीति के पन्नों में छिपा रहता है।