rani laxmi bai birth anniversary

बुंदेलों हरबोलों के मुख से सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह झांसी वाली रानी थी…

रानी लक्ष्मीबाई की जयंती: “बुंदेलों हरबोलों के मुख से सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी, वह झांसी वाली रानी थी।”

ये शब्द सिर्फ एक कविता नहीं, एक युग का शोर हैं। एक ऐसा शोर, जो तब गूंजा था जब धरती पर रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना ने अपनी झांसी की रक्षा के लिए तलवार उठाई थी। ये वही रानी थीं जिनकी वीरता ने अंग्रेजों के अहंकार को चूर-चूर कर दिया और उनकी तलवार की हर चमक में आज़ादी का ख्वाब था।

रानी लक्ष्मीबाई का नाम सुनते ही, मन में एक तस्वीर उभरती है— एक ऐसी मां, जो अपने बेटे को सीने से लगाए हुए, अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए हर पल तैयार हो। जब-जब उन्होंने अपनी तलवार को उठाया, तो वह सिर्फ एक रानी नहीं, बल्कि पूरे देश की उम्मीद बन गईं।

“नहीं, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी!”

ये सिर्फ शब्द नहीं थे, यह एक दहाड़ थी। यह वह हुंकार थी जो अंग्रेजों के कानों में बजी और उनके खेमों में डर का तूफान ला दिया। रानी के शौर्य में बस एक ही मकसद था— झांसी की माटी को अंग्रेजों के पैरों से बचाना।

“हम या तो स्वतंत्र रहेंगे, या फिर स्वाधीनता के यज्ञ में भस्म हो जाएंगे।”

यह वाक्य उस हिम्मत का प्रतीक था, जो रानी के हृदय में पलती थी। रानी का इरादा साफ था: झांसी की माटी पर किसी अन्याय का साया नहीं पड़ने देंगे।

यही वह जज़्बा था, जो रानी लक्ष्मीबाई को सिर्फ़ झांसी की रानी नहीं, बल्कि एक ऐसी शक्ति बना गया जो अंग्रेजों के लिए भी खौ़फ की वजह बन गई। उनकी तलवार के हर वार में बस एक संदेश था— “हम सिर्फ़ शरीर नहीं, आत्मा के भी योद्धा हैं। हमसे जीतने से पहले, तुम्हें हमारी रगों में बहने वाली आग बुझानी होगी।”

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म कब हुआ?

19 नवंबर 1828 का दिन था, जब काशी के घर-घर में दीप जल रहे थे और लोग खुशियों का जश्न मना रहे थे। उसी दिन इस धरती पर एक ऐसी बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम भारतीय इतिहास में अमर हो गया। मणिकर्णिका बचपन में मनु और छबीली के नाम से जानी जाती थीं। शास्त्रों और शस्त्रों के बीच उसका बचपन बीता, और यही समय था, जब वह धीरे-धीरे एक योद्धा बनने की ओर बढ़ रही थी।

मणिकर्णिका अपने घर के आंगन में खेलते-खेलते अपने घोड़े की कमान थामने, तलवार की धार पर हाथ आजमाने और युद्ध की कला सीखने लगी थी। काशी की गलियों में दौड़ते हुए छबीली की आंखों में एक सपना था — अपने देश को स्वतंत्र देखना। जब बाकी लड़कियां खेलती, तब छबीली शस्त्र विद्या, घुड़सवारी और लड़ाई के सारे गुर सीखने में मशगूल रहती थी।

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मणिकर्णिका से लक्ष्मीबाई बनने की कहानी 

1842 में झांसी के राजा गंगाधर राव ने मणिकर्णिका से शादी की, और ससुराल में उन्हें नया नाम मिला लक्ष्मीबाई । 21 नवंबर 1853 को गंगाधर राव की अचानक मृत्यु हो गई, और चूंकि उनका कोई संतान नहीं था, उन्होंने दामोदर राव नामक एक लड़के को गोद लिया। लेकिन जब रानी ने दामोदर राव को झांसी का राजा बनाने की कोशिश की, तो अंग्रेजों ने उसे नकार दिया।

अंग्रेजों ने झांसी का राज्य हड़पने के लिए दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया और रानी को किला छोड़कर महल में आना पड़ा। लेकिन रानी लक्ष्मीबाई ने हार मानने के बजाय अपनी सेना को मजबूत करना शुरू किया। उन्होंने महिलाओं को भी अपनी सेना में शामिल किया और उन्हें भी युद्ध की ट्रेनिंग दी। वो वक्त का सही इस्तेमाल करते हुए अंग्रेजों के खिलाफ निर्णायक हमला करने का सही समय तलाश रही थीं। रानी ने यह तय कर लिया था कि वे कभी भी अपनी झांसी को अंग्रेजों के हाथों नहीं जाने देंगी।

4 जून 1857, जब नाना साहब पेशवा ने कानपुर में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया, उसी दिन झांसी की रानी ने भी अपने राज्य को अंग्रेजों से मुक्त करने के लिए मोर्चा खोल दिया। सावरकर ने अपनी कृति “1857 का स्वातंत्र्य समर” में लिखा, “नाना साहब का विद्रोह जैसे ही शुरू हुआ, रानी लक्ष्मीबाई ने भी अपनी सेना तैयार की और अंग्रेजों से भिड़ने के लिए तैयार हो गईं।”

8 जून 1857 को, रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी सेना के साथ अंग्रेजों पर हमला किया और झांसी को ब्रिटिश शासन से मुक्त कर लिया। इस युद्ध में रानी के नेतृत्व ने न केवल झांसी को बचाया, बल्कि यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक बड़ी जीत का हिस्सा बना। रानी की रणनीति और नेतृत्व से ब्रिटिशों के होश उड़े हुए थे। यह वह दिन था, जब झांसी ने अपनी पहली बड़ी जीत हासिल की, और रानी लक्ष्मीबाई ने साबित कर दिया कि वह सिर्फ एक रानी नहीं, बल्कि एक महान योद्धा थीं।

अंग्रेजों की रसद रोकने के लिए रानी की रणनीति

रानी लक्ष्मीबाई का युद्ध कौशल और रणनीतियाँ उनकी ताकत थी। अंग्रेजों के पास अत्याधुनिक हथियार और संसाधन थे, लेकिन रानी की चतुराई ने उन्हें कई बार मात दी। रानी ने झांसी के पास के इलाकों को पूरी तरह से उजाड़ दिया ताकि अंग्रेजों को रसद और आपूर्ति मिलने में मुश्किल हो। सावरकर ने लिखा, “रानी ने शत्रु के लिए खाने-पीने का सामान नष्ट करवा दिया। कोई भी पेड़ या फसल नहीं छोड़ी, ताकि अंग्रेजों को किसी भी चीज़ का सहारा न मिले।”

रानी के इस कदम ने अंग्रेजों को परेशान कर दिया, और वे लगातार खाद्य आपूर्ति और पानी के लिए जूझते रहे। रानी की रणनीति ने यह साबित कर दिया कि सही समय पर सही कदम उठाने से युद्ध के मैदान में किसी भी सशक्त शत्रु को पछाड़ा जा सकता है।

रानी का संघर्ष और नेतृत्व हर कदम पर बेमिसाल था। अंग्रेजों की तोपों ने किले की दीवारों को छलनी कर दिया, लेकिन रानी ने अपनी रणनीति से उन्हें लगातार नुकसान पहुँचाया। दिन-रात की लड़ाई के बाद भी रानी ने कभी हार मानने का नाम नहीं लिया। जब अंग्रेजों ने झांसी को चारों ओर से घेर लिया और पानी की आपूर्ति रोक दी, तब भी रानी ने अपनी सेना को उम्मीद और हिम्मत दी। रानी ने यह साबित कर दिया कि एक सशक्त शासक वही होता है, जो अपने राज्य के लिए अपने प्राणों की आहुति देने से नहीं डरता।

खूब लड़ी मर्दानी, वह झांसी वाली रानी थी

झांसी के किले में अंग्रेजों ने निर्णायक हमला किया, और रानी की सेना कमजोर पड़ने लगी। रानी के विश्वासपात्र सैनिकों ने किले की रक्षा करते हुए अपनी जानें दे दीं। किले की दीवारों को तोड़ने के बाद, अंग्रेजों ने रानी को पीछे हटने पर मजबूर किया। लेकिन रानी हार मानने को तैयार नहीं थीं। उन्होंने पुरुषों के वेश में सफेद घोड़े पर सवार होकर किले से बाहर निकलने का साहसिक निर्णय लिया। रानी ने रात के अंधेरे में किले से बाहर निकलने की कोशिश की, लेकिन अंग्रेजों ने उनका पीछा किया और अंत में उन्हें घेर लिया। इस आखिरी संघर्ष में रानी वीरगति को प्राप्त हुईं।

रानी की वीरता, उनका साहस, और उनके बलिदान ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। रानी लक्ष्मीबाई का नाम आज भी हमारे दिलों में अमर है, और उनके संघर्ष को याद कर हर भारतीय गर्व महसूस करता है। उनका जीवन एक प्रेरणा है कि जब तक हम अपने देश और अपनी मातृभूमि के लिए खड़े होते हैं, तब तक हम न कभी हार सकते हैं, न कभी थक सकते हैं।