दोखमेनाशिनी परंपरा का पालन नहीं किया जाएगा
रतन टाटा के अंतिम संस्कार में पारसी समुदाय की दोखमेनाशिनी परंपरा का पालन नहीं किया जाएगा। पारसी समुदाय में मृत्यु के बाद शव की अंतिम संस्कार प्रक्रिया को दोख्मा कहा जाता है, जिसमें शव को न जलाया जाता है, न दफनाया जाता है, और न ही बहाया जाता है। पारसी धर्म के अनुसार, शव को पारंपरिक कब्रिस्तान, जिसे टावर ऑफ साइलेंस या दखमा कहते हैं, में खुले आसमान के नीचे रख दिया जाता है, जहां गिद्ध शव को खाते हैं। यह परंपरा लगभग तीन हजार वर्ष पुरानी है और इसे पारसियों के लिए शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है।
हालांकि, पारसी समुदाय की संख्या धीरे-धीरे कम हो रही है। कोरोना काल के दौरान महामारी के कारण अंतिम संस्कार की विधियों में बदलाव आया, जिससे पारसियों की परंपरा पर रोक लगी। इसके अलावा, भारत में चील-गिद्ध जैसे पक्षियों की संख्या भी घट रही है, जिससे पारसियों को अपनी पुरानी परंपरा निभाना मुश्किल हो रहा है। ऐसे में पारसी परिवार अब परिजनों का अंतिम संस्कार हिंदुओं के श्मशान घाटों या विद्युत शवदाह में करने लगे हैं।
रतन टाटा का अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाज से जलाकर किया जाएगा। उनका अंतिम संस्कार विद्युत शवदाह में होगा। इससे पहले, 2022 में टाटा संस के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री का भी अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाज से किया गया था। रतन टाटा के अंतिम संस्कार में इस परिवर्तन से यह स्पष्ट होता है कि पारसी परंपरा में बदलाव आ रहा है और समुदाय अपनी परंपराओं को लेकर नए रास्ते अपना रहा है।