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कैसी थी सोनिया और मनमोहन के बीच सियासी समझदारी, जिसने यूपीए को बचाए रखा?

2004 का साल भारतीय राजनीति के लिए काफी अहम था। कांग्रेस पार्टी के लिए यह साल एक नई शुरुआत का था। आठ साल के बाद कांग्रेस को फिर से सत्ता मिली थी। सोनिया गांधी, जो उस वक्त कांग्रेस की अध्यक्ष थीं, उन्होंने यूपीए (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस) का गठन किया था, और यह गठबंधन कई छोटी-बड़ी पार्टियों के साथ मिलकर बना था। ऐसा लगा जैसे सब कुछ सोनिया गांधी के हाथों में होगा, और वो प्रधानमंत्री बनेंगी। लेकिन, जब सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री पद से इनकार कर दिया, तो यह एक चौंकाने वाला पल था।

सोनिया गांधी ने कहा था कि उनकी अंतरात्मा उन्हें यह पद स्वीकार करने से मना कर रही है। यह सुनकर कांग्रेसियों को तो झटका लगा ही, साथ ही बाकी राजनीतिक हलकों में भी चर्चा होने लगी। इस फैसले ने मनमोहन सिंह के लिए एक शानदार मौका पैदा किया। वे प्रधानमंत्री बने, और एक नई कहानी की शुरुआत हुई। हालांकि, ऐसा कहा जाता है कि असल ताकत तो सोनिया गांधी के पास ही रही, क्योंकि वो सरकार के कामकाज पर पूरा नियंत्रण रखती थीं। तभी से मनमोहन सिंह को ‘रिमोट से चलने वाली सरकार’ के रूप में देखा जाने लगा और सोनिया गांधी को ‘सुपर पीएम’ के तौर पर पेश किया जाने लगा।

सोनिया और मनमोहन के बीच सियासी केमिस्ट्री

यूपीए के दौरान सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच जो तालमेल था, वह काफी अनोखा था। दोनों के बीच कभी भी सियासी टकराव नहीं हुआ। दोनों के बीच समझदारी का रिश्ता था, जो यूपीए सरकार की ताकत बना रहा। मिसाल के तौर पर, जब राहुल गांधी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में सरकार का एक अध्यादेश फाड़ दिया था, तब भी दोनों नेताओं के बीच किसी तरह का बड़ा विवाद नहीं हुआ। उन्होंने मामले को मिलकर सुलझाया।

इस तरह से सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने एक-दूसरे के फैसलों का सम्मान किया और देश की राजनीति में हमेशा अपना बेहतरीन तालमेल रखा। हालांकि, समय-समय पर कुछ मुद्दों पर उनकी राय में फर्क जरूर आया, लेकिन दोनों ने इसे कभी सार्वजनिक नहीं होने दिया।

जब सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला लिया, तो कुछ कांग्रेसियों को यह बिल्कुल भी पसंद नहीं आया। खासकर उन नेताओं को, जो खुद प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे। उनका कहना था कि सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद संभालना चाहिए, लेकिन सोनिया ने सभी को चौंकाते हुए मनमोहन सिंह को चुना। सोनिया गांधी की यह चुपचाप रणनीति समझी जाती है कि उन्होंने सरकार की बागडोर तो मनमोहन सिंह को दी, लेकिन पार्टी और संगठन की कमान उनके ही हाथों में रही।

इसके बाद, सरकार को संतुलन में रखने के लिए ‘एनएसी’ (राष्ट्रीय सलाहकार समिति) का गठन किया गया, जो मुख्य रूप से सोनिया गांधी के दिशा-निर्देशों पर काम करती थी। यह समिति सरकारी फैसलों में मदद करती थी, जबकि प्रधानमंत्री का कार्यालय यानी मनमोहन सिंह का घर, सत्ता की वास्तविक धारा को चलाता था।

manmohan singh funeral

सोनिया और मनमोहन के बीच कभी-कभी असहमति भी हुई

सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच कुछ मुद्दों पर असहमति भी देखने को मिली। 2006 में पेट्रोल और डीजल की कीमतों को लेकर मनमोहन सिंह ने जो फैसला लिया था, उसे एनएसी ने पसंद नहीं किया था। एनएसी चाहता था कि कीमतों को कम किया जाए, लेकिन मनमोहन सिंह ने इसे मना कर दिया। इसी तरह से 2006 में अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर भी दोनों के बीच मतभेद थे। वामपंथी दल इस करार के खिलाफ थे, लेकिन मनमोहन सिंह ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था।

इस मुद्दे पर सोनिया गांधी ने अपनी भूमिका निभाई और इसे सुलझाने में मदद की। सोनिया ने इस पर कुछ सुझाव दिए, जिनके बाद मनमोहन सिंह ने अमेरिका पर दबाव डालकर भारत के हितों के पक्ष में कुछ बदलाव कराए। इस तरह, सोनिया और मनमोहन ने मिलकर कई कठिन मुद्दों को सुलझाया।

मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) और खाद्य सुरक्षा कानून जैसे बड़े कानूनों पर भी सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच मतभेद थे। मनमोहन सिंह को इन योजनाओं पर खर्च की चिंता थी, जबकि सोनिया गांधी और उनके सहयोगी दल इसे लागू करने के पक्ष में थे। अंततः सोनिया गांधी की जिद के आगे मनमोहन सिंह को इन योजनाओं को लागू करने के लिए राजी होना पड़ा। सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच यही तालमेल था, जिसने यूपीए सरकार के 10 साल के शासन को कायम रखा।

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कभी-कभी मनमोहन सिंह ने अपनी राय पर जोर भी डाला

मनमोहन सिंह ने कई मामलों में अपनी राय पर जोर भी डाला। जैसे, सीबीआई निदेशक की नियुक्ति को लेकर एक बार सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल ने प्रधानमंत्री को बताया कि सोनिया गांधी को किसी दूसरे नाम पर विचार करना चाहिए, लेकिन मनमोहन सिंह ने इसे नजरअंदाज करते हुए खुद फैसला लिया और एक ऐसे नाम पर सहमति बनाई, जो वरिष्ठता में सबसे ऊपर था।

2013 में जब राहुल गांधी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में सरकार का एक अध्यादेश फाड़ दिया था, तो मनमोहन सिंह को बहुत गुस्सा आया था। इस वाकये से मनमोहन सिंह दुखी थे, लेकिन उन्होंने इसे सार्वजनिक रूप से नहीं दिखाया और खुद को संभाल लिया। मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने अपनी किताब में यह भी लिखा कि मनमोहन सिंह ने उनसे कहा था कि क्या उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए।

कांग्रेस की हार के बाद भी मनमोहन सिंह ने नहीं छोड़ा साथ

2014 के चुनाव में कांग्रेस हार गई और कई नेताओं ने पार्टी छोड़ दी। इस दौरान, यह माना जा रहा था कि मनमोहन सिंह अब गांधी परिवार से अलग हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे गांधी परिवार के साथ खड़े रहे और सत्ता से बाहर होने के बावजूद कांग्रेस का मजबूती से साथ दिया। सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के रिश्ते में एक गहरा तालमेल था। उनकी आपसी समझदारी ने यूपीए सरकार को सत्ता में बनाए रखा और हर मुश्किल घड़ी में दोनों ने एक-दूसरे का साथ दिया। हालांकि, उनके बीच मतभेद भी थे, लेकिन इन मतभेदों को कभी सार्वजनिक नहीं होने दिया गया। यही कारण है कि यूपीए सरकार के दस साल बिना किसी बड़े सियासी टकराव के निकले।

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