कहानी उस हीरो की जिसने हिला दिया था अमिताभ बच्चन का स्टारडम!

70 के दशक का भारतीय सिनेमा जब रंगीन परदे पर नयी कहानियाँ और किरदार लेकर आया, तब उस दौर के सबसे चमकदार सितारों में से एक थे विनोद खन्ना। उन्हें एक ऐसा अभिनेता माना जाता था, जिसकी अदाकारी ने उन्हें केवल विलेन नहीं, बल्कि लीड एक्टर के रूप में भी पहचान दिलाई। उनकी आँखों में एक गहरी चमक और व्यक्तित्व में एक अनोखी करिश्माई शक्ति थी, जिसने दर्शकों का दिल जीत लिया। लेकिन उनकी कहानी सिर्फ एक अभिनेता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक सच्चे संघर्ष और पुनर्निर्माण की गाथा भी है।

बचपन और परिवार

विनोद खन्ना का जन्म 6 अक्टूबर, 1946 को पेशावर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनका परिवार एक पंजाबी-हिंदू परिवार था। बाद में उनका परिवार भारत में बस गया। बचपन से ही विनोद की रुचि अभिनय और खेलों में थी। वे एक प्रतिभाशाली छात्र थे और उनकी पढ़ाई में भी विशेष रुचि थी। लेकिन फिल्म उद्योग में कदम रखने की चाहत उन्हें हमेशा खींचती रही।

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फिल्मी सफर की शुरुआत

विनोद खन्ना ने साल 1968 में फिल्म ‘मेरे अपने’ के साथ अपने करियर की शुरुआत की। इस फिल्म में उन्होंने विलेन का रोल निभाया था, जो दर्शकों के बीच काफी चर्चा का विषय बना। इसके बाद उनकी फ़िल्में जैसे ‘मेरा गांव मेरा देश’, ‘अचानक’ ने उन्हें एक प्रमुख अभिनेता के रूप में स्थापित कर दिया। लेकिन उन्हें असली पहचान 1974 की फिल्म ‘हाथ की सफाई’ से मिली, जिसने उन्हें दर्शकों के दिलों में खास स्थान दिलाया।

अमिताभ बच्चन के साथ प्रतिस्पर्धा

विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन की जोड़ी ने ‘मुकद्दर का सिकंदर’ जैसी सफल फिल्म में एक साथ काम किया। इस फिल्म ने उन्हें न केवल एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया, बल्कि यह साबित कर दिया कि विनोद खन्ना को भी उतनी ही तारीफ मिल रही थी जितनी कि अमिताभ बच्चन को। विनोद ने एक बार कहा था, “हमने कई फिल्में कीं और हमें हमेशा बराबर की तारीफ मिली।”

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संन्यास का चौंकाने वाला फैसला

अचानक से फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कहना सभी के लिए एक बड़ा झटका था। 1978 में, जब विनोद खन्ना अपने करियर के शीर्ष पर थे, उन्होंने संन्यास लेने का निर्णय लिया। वे अपने गुरु ओशो रजनीश के साथ अमेरिका के ओरेगॉन में रहने चले गए। वहाँ उन्होंने ‘स्वामी विनोद भारती’ के नाम से दीक्षा ली और एक आश्रम में माली के रूप में काम किया। यह उनके जीवन का एक नया अध्याय था, जिसमें उन्होंने ध्यान और साधना के माध्यम से आत्मिक शांति की खोज की।

अमेरिका में ओशो के साथ

ओशो के आश्रम में बिताए गए दिन विनोद के लिए काफी transformative रहे। उन्होंने यहाँ ध्यान और योग की गहरी साधना की। लेकिन अमेरिकी सरकार के साथ विवाद के कारण आश्रम बंद होने के बाद, विनोद ने वापसी का निर्णय लिया। 1986 में वे भारत लौटे और फिर से फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा।

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राजनीतिक करियर की शुरुआत

वापसी के बाद, विनोद खन्ना ने 1997 में भारतीय जनता पार्टी जॉइन की। उन्होंने 1998 के लोकसभा चुनाव में पंजाब के गुरदासपुर निर्वाचन क्षेत्र से जीत हासिल की। उनका राजनीतिक करियर भी उल्लेखनीय रहा। जुलाई 2002 में, वे केंद्रीय संस्कृति और पर्यटन मंत्री बने। उन्होंने विदेश मंत्रालय में भी राज्य मंत्री के रूप में काम किया, जहाँ उन्होंने विदेश मामलों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

ब्लैडर कैंसर ने छीनी जिंदगी

विनोद खन्ना को ब्लैडर कैंसर का सामना करना पड़ा, जिससे उन्होंने लंबे समय तक लड़ाई की। उनके जीवन का यह हिस्सा उनके लिए बहुत कठिन था, लेकिन उन्होंने हमेशा साहस नहीं खोया। 27 अप्रैल, 2017 को, 70 साल की उम्र में, उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका निधन केवल एक महान अभिनेता का नहीं, बल्कि एक सच्चे इंसान का भी था।