भारतीय जनता पार्टी (BJP) की केंद्र सरकार पिछले कई सालों से कांग्रेस पर इमरजेंसी के मुद्दे पर निशाना साधती रही है। खासतौर पर 2014 के बाद से यह आलोचना और तेज हो गई है। 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के दौरान, कई लोगों को यह यकीन था कि यह दौर लंबे समय तक चलेगा और देश में जल्दी चुनाव नहीं होंगे। इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी भी ऐसा ही सोचते थे।
लेकिन 21 महीनों के बाद इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी खत्म करने और चुनाव कराने की घोषणा कर दी। यह फैसला सबके लिए हैरान करने वाला था। सवाल उठता है कि ‘आयरन लेडी’ मानी जाने वाली इंदिरा गांधी ने ऐसा अचानक क्यों किया? क्या इसके पीछे अमेरिका में कुछ समय पहले राष्ट्रपति बने जिमी कार्टर का कोई दबाव था? यह एक दिलचस्प पहलू है, जिस पर चर्चा होती रही है।
राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इंदिरा गांधी पर डाला था दबाव
3 फरवरी 2019 को, प्रख्यात कॉलमनिस्ट और पत्रकार कूमी कपूर ने इंडियन एक्सप्रेस में ‘Inside Track: Holes in the Net’ शीर्षक से एक कॉलम लिखा। इस कॉलम में उन्होंने वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर की किताब On Leaders and Icons का जिक्र किया। किताब के हवाले से उन्होंने बताया कि इमरजेंसी खत्म होने के बाद संजय गांधी ने कुलदीप नैयर से कहा था कि उन्हें लगता था कि उनकी मां (इंदिरा गांधी) अगले 30-40 साल तक देश में चुनाव नहीं कराएंगी। हालांकि, इमरजेंसी के खत्म होने के कुछ ही महीनों बाद आम चुनाव का रास्ता साफ हो गया और चुनाव हुए।
कूमी कपूर के एक लेख के कुछ समय बाद, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और संवैधानिक विशेषज्ञ फली एस. नरीमन ने अपने लेख ‘Why did Indira Gandhi call off the Emergency?’ में एक दिलचस्प बात कही। उन्होंने अंदाजा लगाया कि अमेरिका के उस समय के निर्वाचित राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इंदिरा गांधी पर दबाव डाला था कि वे आपातकाल खत्म करें और मार्च 1977 में लोकसभा चुनाव कराएं। हालांकि, नरीमन ने यह भी साफ किया कि इस बात को साबित करने के लिए उनके पास कोई ठोस सबूत नहीं है।
क्यूबा के नेता फिदेल कास्त्रो की सलाह पर लगी थी इमरजेंसी
देश में इमरजेंसी खत्म करने को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने सुझाव दिए थे, लेकिन इसके अलावा एक और दावा किया जाता है। कहा जाता है कि इमरजेंसी के पीछे क्यूबा के नेता फिदेल कास्त्रो का भी हाथ था। बताया जाता है कि जून 1975 में इंदिरा गांधी ने फिदेल कास्त्रो की सलाह पर इमरजेंसी लागू की थी। फिदेल ने इंदिरा को चेतावनी दी थी कि अमेरिका, चिली के राष्ट्रपति सल्वाडोर एलेंडे की तरह उनकी भी हत्या करवा सकता है।
फिदेल कास्त्रो की एक सलाह के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी जान को खतरे और देश में बढ़ती अस्थिरता के डर से आपातकाल लागू कर दिया। इस फैसले के तहत विपक्ष के बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया और आम लोगों की संवैधानिक स्वतंत्रता समेत हर तरह की आजादी पर रोक लगा दी गई। लेकिन, 21 महीने बाद, अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जिमी कार्टर के सुझाव पर इंदिरा ने आपातकाल हटाने का फैसला किया। हालांकि, इस बात की कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं है कि यह फैसला उनकी सलाह पर ही लिया गया था।
ऑस्ट्रेलिया के तत्कालीन उच्चायुक्त ब्रूस ग्रांट का घटना से सम्बन्ध
नरीमन ने 8 फरवरी 2019 के अपने लेख में लिखा कि मार्च 1977 में जब इमरजेंसी खत्म हुई और चुनाव हुए, तो इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा और वह सत्ता से बाहर हो गईं। नरीमन ने बताया कि एक शाम, नेहरू पार्क में टहलते हुए, शायद ऑस्ट्रेलिया के तत्कालीन उच्चायुक्त ब्रूस ग्रांट ने उन्हें यह बात बताई थी। उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी ने खुद बताया था कि अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने भारत दौरे के दौरान उन्हें समझाया और मनाया कि देश में मार्च 1977 में लोकतांत्रिक तरीके से आम चुनाव कराए जाने चाहिए।
उन्होंने लिखा, ‘मैंने यह बात कई लोगों से साझा की। 1995 में वाशिंगटन में इंडो-यूएस लीगल फोरम के एक कार्यक्रम के दौरान, जब मैं अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जजों के साथ लंच मीटिंग में था, तो मैंने यह बात उठाई। उस बैठक की अध्यक्षता कर रहीं जस्टिस रूथ गिंसबर्ग को यह जानकारी काफी रोचक लगी। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या इसके प्रमाण के लिए कोई दस्तावेज उपलब्ध हो सकता है।’
वे आगे लिखते हैं, ‘मैं भारत लौटा और काफी खोजबीन की, लेकिन ऐसा कोई दस्तावेज नहीं मिला। यहां तक कि आपातकाल के दौरान लंबे समय तक जेल में रहे लाल कृष्ण आडवाणी को भी इस घटना के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।’
इंदिरा गांधी के फैसले से जुड़ी कोई ठोस जानकारी नहीं मिली
नरीमन बताते हैं कि उन्होंने वाशिंगटन में ग्रैनविले ऑस्टिन से संपर्क किया, जिन्होंने अमेरिकी कांग्रेस की लाइब्रेरी में काफी खोजबीन की, लेकिन इंदिरा गांधी के फैसले से जुड़ी कोई ठोस जानकारी नहीं मिली। नरीमन का मानना है कि इस पर भारत में रिसर्च की जानी चाहिए कि जनवरी 1977 में आखिर क्या हुआ, जिसने इंदिरा गांधी को चुनाव कराने का फैसला लेने पर मजबूर किया।
दिलचस्प बात यह है कि इस फैसले की जानकारी शायद संजय गांधी को भी नहीं थी, जो उस समय इंदिरा गांधी के सबसे करीबी माने जाते थे। 1977 के आम चुनाव 16 से 20 मार्च के बीच हुए, और 21 मार्च 1977 को आपातकाल आधिकारिक तौर पर खत्म कर दिया गया।
‘मैं जानती हूं कि हारना तय है’
इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था ‘Multiple narratives exist for why Indira Gandhi lifted the Emergency’, जिसे रवि विश्वैसरैया शारदा प्रसाद ने लिखा था। इस लेख में रवि ने बताया कि 20 जनवरी, 1977 को जिमी कार्टर ने अमेरिका के 39वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली थी। लेकिन, इसके दो दिन पहले यानी 18 जनवरी को, इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर देश के नाम संबोधन में चुनाव कराने की घोषणा कर दी थी।
रवि ने यह भी बताया कि किसी भी निर्वाचित राष्ट्रपति के लिए यह असामान्य है कि वह शपथ लेने से पहले किसी दूसरे देश के नेता को इतने संवेदनशील मुद्दे पर पत्र लिखे। इस बात ने इमरजेंसी खत्म करने के फैसले पर कई सवाल खड़े कर दिए।
उन्होंने लिखा है, नवंबर 1976 की शुरुआत में, इंदिरा गांधी ने अपने प्रमुख सचिव पी.एन. धर और मेरे पिता एच.वाई. शारदा प्रसाद, जो उस समय उनके सूचना सलाहकार थे, को पूरी गोपनीयता में बताया, ‘मैं इमरजेंसी खत्म करने और देश में चुनाव कराने का फैसला कर चुकी हूं। मुझे पता है कि मैं हार जाऊंगी, लेकिन यह एक ऐसा कदम है जिसे मैं जरूर उठाना चाहती हूं।’
इंदिरा गांधी ने आगे कहा, ‘खुफिया एजेंसियां मुझे वही बताएंगी जो उन्हें लगता है कि मैं सुनना चाहती हूं। हालांकि, मैं जानती हूं कि हारना तय है, भले ही आईबी का कहना हो कि मुझे 330 सीटें मिलेंगी।’ उनके इस फैसले का असली कारण कोई समझ नहीं पाया।’
सीआईए ने संजय गांधी के करीबियों में अपनी बनाई पकड़
सितंबर 1976 के बाद से इंदिरा गांधी का इमरजेंसी से मोहभंग होने लगा था। वह अपने छोटे बेटे संजय गांधी से सत्ता वापस लेने की कोशिश कर रही थीं। एक दिन संजय गांधी ने एक अखबार को इंटरव्यू दिया, जिसमें उन्होंने सोवियत संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों की कड़ी आलोचना की थी, जिससे इंदिरा गांधी बहुत परेशान हो गई थीं। इसके अलावा, उन्हें खुफिया एजेंसियों से यह जानकारी मिली थी कि सीआईए ने संजय गांधी के करीबियों में अपनी घुसपैठ बना ली है।
रवि अपने लेख में आगे लिखते हैं, रियलपोलिटिक पत्रिका के मार्च 2006 के अंक में, मेरे पिता ने लिखा था, ‘इमरजेंसी को इंदिरा गांधी अपने ही प्रधानमंत्री पद के खिलाफ एक तख्तापलट के रूप में देख सकती थीं। उन्होंने अपने सचिवालय, गृह मंत्रालय, कैबिनेट और वास्तव में पूरी सरकार को अपनी ताकत से वंचित कर दिया था, और खुद प्रधानमंत्री महल के गार्ड्स द्वारा कैद हो गए थे।’
मैं खुद ही अपनी हार तय कर रही हूं
रवि ने अपने लेख में यह भी कहा, “इंदिरा गांधी ने संजय गांधी को चुनाव के बारे में अपनी योजनाओं के बारे में एक भी संकेत नहीं दिया था। असल में, संजय को 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा के रेडियो प्रसारण से चुनावों के बारे में पहली बार जानकारी मिली थी। इस पर उन्होंने इंदिरा से नाराजगी भी जाहिर की थी।”
रवि आगे बताते हैं, ‘फिर 2 फरवरी, 1977 को जब जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा ने कांग्रेस छोड़ दी, तो उन्होंने मेरे पिता (एच.वाई. शारदा प्रसाद) से कहा, ‘मैं खुद ही अपनी हार तय कर रही हूं। अब जब बहुगुणा ने मुझे छोड़ दिया है, तो उत्तर प्रदेश में मेरी स्थिति खत्म हो जाएगी।’ लेकिन फिर उन्होंने जो बात कही, उसने सबको चौंका दिया, ‘अगर मैं हार गई तो यह राहत की बात होगी, पूरी तरह से राहत की बात होगी।’
इमरजेंसी खत्म करना इंदिरा गांधी का व्यक्तिगत फैसला
यह कहा जा सकता है कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी खत्म करने और चुनाव कराने का फैसला कई कारणों से लिया होगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह एक बेहद व्यक्तिगत निर्णय था। इस बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी थी, यहां तक कि उनके करीबी सहयोगियों और सलाहकारों को भी नहीं पता था। इंदिरा गांधी के सबसे विश्वासपात्र और लंबे समय तक उनके सूचना सलाहकार रहे एचवाई शारदा प्रसाद ने एक टिप्पणी की थी, जिससे यह साफ़ होता है कि इमरजेंसी को ‘इंदिरा गांधी ने खुद अपने प्रधानमंत्री पद के खिलाफ एक तरह का तख्तापलट किया था।’
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